सामाजिक

भगवान के समान है मां

यह बच्चे को जन्म देने वाली माँ के ऊपर एवं आचार्य पर निर्भर करता है कि वह समस्त गुणों को बच्चे में किस प्रकार विकसित करते हैं।
मानव जीवन में संस्कारों का महत्व सर्वाेपरि है। संस्कारों का प्रमुख संबंध माता पिता द्वारा दी गयी शिक्षा और उनके आचरण से संबंधित है। यदि हम संस्कारों के मूल में जाकर गहराई से सोचें तो यह सामने आयेगा, हमारी शिक्षा-दीक्षा तभी आरम्भ हो गयी थी जब हम गर्भावस्था में थे। अर्थात् मानव शरीर के रूप में हमारा निर्माण हो रहा था। वैदिक ऋषि कहते थे कि जो शिक्षा माता देती है। वह किसी विश्वविद्यालय में नहीं मिल सकती। महाभारत काल तक यह शिक्षा माताओं को विद्यालय में दी जाती थी। मदालसा, कुन्ती, कौशल्या इत्यादि अनेकों माताओं का उदाहरण है। जिन्हांेने अपने गर्भ में बालकों का निर्माण कर महान बनाया। मदालसा के पुत्र तो पाँच वर्ष के ब्रह्मदेवता बन जाते थे। इतिहास में अभिमन्यु को गर्भ में चक्रव्यूह के ज्ञान से बात की पुष्टि हो रही है, कि गर्भावस्था में ही शिशु की शिक्षा पर प्रभाव पड़ना प्रारम्भ हो जाता है। हमारी प्राचीन संस्कृति के अनुसार माता गर्भ धारण करने के बाद संयम रखते हुये वेदों का अध्ययन एवं महापुरूषों की जीवनी के बारे में स्वाध्याय करती थी। ताकि जन्म लेने वाले बच्चे में उच्च संस्कारों का भली भाँति प्रभाव पड़ सके, तथा बच्चे को पाँच वर्ष की आयु तक माता द्वारा उच्च संस्कारित किया जाता था। उसके बाद आचार्य द्वारा गुरुकुल में शिक्षा दिलायी जाती थी। बालक एवं बालिकाओं को अलग अलग गुरूकुलों में शिक्षा प्राप्त होती थी। यह प्राचीन शिक्षा पद्धति न होने के कारण आज हमें सामान्य मानव जीवन में अनेक बार सही दिशा का ज्ञान न होने की समस्या से जूझना पड़ता है। यदि हम वैदिक शिक्षा प्रणाली का सदुपयोग करें तो जीवन की अधिकांश समस्यायें अपने आप हल हो जायेगी। तात्पर्य यह कि हम चाहें तो शिशु में विनम्रता दया, सहनशीलता, धैर्य, सेवाभाव आदि सदगुण विकसित कर सकते है। यह बच्चे को जन्म देनें वाली माँ के ऊपर एवं आचार्य पर निर्भर करता है। कि व वह इन समस्त गुणों को बच्चे में किस प्रकार विकसित करते है। यदि हम आगे की पीढ़ी को इस प्रकार के संस्कारों और गुणों की शिक्षा से परिपूर्ण कर दें, तो हम न केवल एक अच्छे समाज की रचना कर सकते है बल्कि देश के भविष्य को सुरक्षित कर सकते है। माँ को यह ध्यान रखना होगा कि गर्भकाल में वह जैसा आहार-व्यवहार अथवा संवाद करेगी उसका प्रभाव जन्म लेने वाले बालक पर पड़ेगा। उदाहरण के लिये इस अवधि में माँ के द्वारा अच्छी पुस्तकें पढ़ने से शिशु में ज्ञानार्जन के गुण विकसित होगें। प्रसन्न रहने से शिशु में उत्साह का संचार होगा। यदि मस्तिष्क में यह विचार हो कि हमें एक बच्चे को नहीं बल्कि एक संकल्प को जन्म देना है, तो नई पीढ़ी को मानवीय गुणो एवं वैदिक संस्कारो से युक्त करके देश का विकास किया जा सकता है। वैदिक साहित्य में इसके उदाहरण भरे पड़े है। सीता, बिदुला, मदालसा की शिशु शिक्षा इसके जीवंत प्रमाण है। माता केवल जन्मदात्री माता ही नहीं बल्कि भविष्य के गुणवान सदाचारी व्यक्ति की निर्माता भी है। इसलिए शास्त्रों में स्पष्ट लिखा गया है ‘‘माता निर्माता भवति’’ अर्थात् माता निर्माण करने वाली होती है। वह जिस प्रकार से चाहे बच्चे के भविष्य का निर्माण कर सकती है। माँ को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। वर्तमान समाज में माँ की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है।

सोमेन्द्र सिंह

सोमेन्द्र सिंह " रिसर्च स्काॅलर " दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली शास्त्री सदन ग्राम नित्यानन्दपुर, पोस्ट शाहजहांपुर, जिला मेरठ (उ.प्र.) मो : 9410816724 ईमेल : somandrashree@gmail.com