कविता

यात्रा

स्त्री की यात्रा सुगम नहीं होती।
पीढ़ी- दर -पीढियों ने जिसे पीताड़ित किया हो।
अस्तित्व को हमेशा  ही चिन्हित किया हो।
असितत्व की ऐसी लड़ाई सुगम नहीं होती।
स्त्री की यात्रा सुगम नहीं होती।
हर दिन जीने की कोशिश में आये दिन मरती।
सबके लिए करते हुए भी सुनतीं हैं…. कुछ नहीं वो करती।
अपने अधिकार भूला सपनों को ,खुद को भूल जीती।
बोझ की एक गांठ बन अपमानित हो स्त्री होने से डरती।
स्त्री की यात्रा सुगम नहीं होती।
परम्पराओं , रीति -रिवाजों रूढिय़ों की भेंट चढ़तीं।
सृजन की अधिष्ठात्री   खामोशी से सिसकियां भरती।
जन्मों की बेडियों को जो तोडऩे की कोशिश करती।
अपमानित हो अपनों से जीवन जहर हैं पीती।
स्त्री की यात्रा सुगम नहीं होती।
अपने स्वार्थवश समाज ने ढ़ोग रच लिया है।
देकर “देवी” की कारा।
अपना जीवन सुगम कर लिया है।
बैठी रहे गी डरकर।
शर्तों पर कर गुजारा।
कोई नहीं आयेंगा।
 तोडऩे तुम्हारी ….कारा।
अपने अस्तित्व का  पहले खुद सम्मान करना होगा।
स्त्री जब जीवन को बदलती है।
तो…
अपने लिए अपनी सोच को भी बदलना होगा।
— प्रीति शर्मा ‘असीम’

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- aditichinu80@gmail.com