गीत/नवगीत

अन्तर्नाद

हा त्राहिमाम! हा त्राहिमाम! हा त्राहिमाम! की सुन पुकार।
क्रन्दन कर उठा हृदय कवि का,  शिशुओं का सुनकर चीत्कार।।

ख़ाकीन कर दिया पतनों ने, दे दी पछाड़ उत्थानों को।।
आ रहा पसीना पथरीली, काँपती हुई चट्टानों को।

हिल उठे कलेजे शिखरों के, घाटियाँ सिकुड़ कर चीख उठीं।
मौतें हो उठीं मुखर मौनी, लाशों पर नर्तन सीख उठीं।।

आ गया ज्वार उन लहरों में, जो कभी आज तक उठीं न थीं।
गुँथ गईं युद्ध में वे कड़ियाँ, जो एक सूत में गठीं न थीं।।

लग रहा अधकटे रुण्डों की, कर उठी भैरवी खेती हो।
या मुण्डमाल के लिए पुनः, काली रण चण्डी चेती हो।।

या महाकाल की खुली आँख, तीसरी ध्वंस की बेला है।
या स्वयं कालभैरव ने आ, जग को इस ओर धकेला है।।

धरती की छाती छेद उठे, धरती पर बने बनाए बम।
दहला दी दुनिया दहशत से, हो रही बमों की बम बम बम।।

टी वी की छाती से निकले, परिदृश्य दिखाई देते हैं।
कुछ सत्य और कुछ भ्रमकारी, सन्देश सुनाई देते हैं।।

इस ओर विवश यूक्रेन खड़ा, उस ओर रूस की दमदारी।
इस ओर गुरिल्ला वारों से, उस ओर दनादन बमबारी।।

इस ओर कराहें दबी दबी, उस ओर गर्जना गर्वीली।
इस ओर आह तक पीली है, उस ओर वाह तक रौबीली।।

इस ओर चतुर्मुख धुआँ धुआँ, उस ओर फूटते फव्वारे।
इस ओर जी उठा ध्वंस राग, उस ओर नृत्य द्वारे द्वारे।।

इस ओर ध्वस्त हो गया सृजन, उस ओर अहम् है मस्तक पर।
इस ओर भुखमरी पेटों ‌की, उस ओर दम्भ है दस्तक पर।।

इस ओर थम गई किलकारी, उस ओर लग रहे अट्टहास।
इस ओर झर चुके पारिजात, उस ओर सुर्ख होता पलास।।

क्या नई भूख के प्यासों को, पानी न मिला पाताल तलक।
जो माँस चबा पी उठे खून‌, छोड़ी न नरों मे खाल तलक।।

आखिर किसने जीवन्त देश, शमशान बना कर छोड़ दिया।
किसने मदमाते सिंहों के, सामने मेमना मोड़ दिया।।

किसके बल पर यह मेष पुत्र, किसकी बातों में बहक गया।
वे कहाँ गए हित के रक्षक, जिनके कारण सब दहक गया।।

सबसे ताकत वर मैं ही हूँ, बस यही सिद्ध कर पाने को।
हिंसक पशुओं में सदा युद्ध, होते हैं भूख मिटाने को।

मानव मानव को मारेगा, जग को विनाश समझायेगा?
जंगली सभ्यता पनपेगी, क्या यह विकास कहलायेगा??

जिस मानवता की जड़ें त्याग, सहयोग दया पर जमी रहीं।
वीरता विनय के साथ क्षमा, की भाव भूमि पर टिकी रहीं।।

जिस बुद्ध जीव की अण्डज क्या, पिण्डज पर पहरेदारी थी।
स्वेदज उद्भिज जड़ जंगम की, रक्षा की जिम्मेदारी थी।।

असहाय लगा वह नरपुंगव, नैतिकता नीति विहीन लगी।
हो उठी बली फिर दानवता, ऐसी मानवता दीन लगी।।

रो रही धरा रो रहा गगन, रो उठा नर्क का द्वार द्वार।
आँखों से झरने फूट पड़े, हा – हा खा – खा कर बार बार।।

रोको रोको यह महायुद्ध, यह महानाश का कारण है।
यह द्वन्द्व नहीं है बातों का, यह प्रलय भयंकर भीषण है।।

यदि रोक न पाए महानाश युग को कलंक लग जायेगा।
इस धवल कीर्ति की काया पर, मल भरा पंक लग जायेगा।।

गिर पड़ी कहीं बारूदों के, ढेरों पर जीती चिनगारी।
स्वाहा कर देगी सकल सृष्टि, बदला लेने की जीदारी।।

फिर कौन बचेगा महफ़िल में, क्या प्राण बिना तन डोलेंगे ?
कोयलें कहाँ पर कूकेंगीं , किस तरह पपीहे बोलेंगे ??

बेला गुलाब रजनीगन्धा, चम्पा कनेर मिट जायेंगे?
होगी दुर्गन्धित दिशा दिशा, क्या सभी पुष्प मर जायेंगे ??

पेड़ों से लिपटीं बल्लरियांँ, कोपलें उमगती शाखों से।
हर ओर चटकती कली कली, क्या देख सकोगे आँखों से ??

ये खिले बगीचे रंग भवन, रम्भा सी इठलाती परियाँ।
मद भरी जवानी तरुणों की, मद बिन मदिराती सुन्दरियाँ।।

क्या रूप रूठ कर बैठेगा, क्या रंग मनाने आयेगा ?
क्या किलक सकेगी किलकारी, क्या जीवन राग सुनायेगा ??

वह बनक ठनक प्रेमानुराग, रुतबा रुआब किसका होगा ?
फिर कौन करेगा प्रश्न यहाँ, कैसा जवाब किसका होगा ??

क्या मौत ठहाके मार मार,जीवन को और चिढ़ायेगी ?
कटुता क्या इतनी कटु होगी, करुणा को मार भगायेगी ??

लहराती नदियों की कल कल, फिर कौन सुनेगा दुनिया में ?
झरनों से झरते सपनों को, फिर कौन बुनेगा दुनिया में ??

क्या कमी आज आ गई कहो, सोचो समझो फिर तो तय हो ।
हो किसी तरह यह युद्ध बन्द, हर ओर शान्ति का निर्णय हो।।

हाँ वही शान्ति जो जीवन में, जीवन का मूल्य बताती है।
हाँ वही शान्ति निष्प्राणों में, जो प्राणी भाव जगाती है।।

आती आँधी हो शमित दमित, हों शान्त अग्नि चारों आकर।
हों धरा गगन जल शान्त पवन, भूकम्प मेघ नदियाँ सागर।।

ज्वाला मुख गिरि हों शान्त शान्त, नग शान्त शक्तियाँ औषधियाँ।
मन के विकार हों शान्त शान्त, ब्रह्माण्ड खण्ड बहती नदियाँ।।

— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”

गिरेन्द्र सिंह भदौरिया "प्राण"

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