सामाजिक

कहाँ चूक गए हम?

कहाँ चूक गए हम?

 

आधुनिकता के चकाचौंध में, भौतिक सुख साधनों की चमचम में भूल गए हम हमारे संस्कार। आँखों पर बांध पट्टी प्यार की, आफताब से फरेब की, माता-पिता पराये हो गए। क्या हमारी सोच, हमारी विचार शक्ति कुंठित हो गयी हैं? पाश्चात्य संस्कृति का अवलंब करते हम हमारा वेश, हमारा भेष भूल गए हैं।  रुको, सोचो, मर्यादा में रहो।  नृशंस हत्यारे मुखौटा ओढ़े अपनी जादुई छड़ी लिए बेताब हैं आपको फंसाने के लिए। अपने आप पर नियंत्रण रखो। सच्ची प्रीत को पहचानो।  छोटी सी गलती, थोडीसी नादानी घातक हो सकती हैं। जीवन सुन्दर हैं। अनमोल भी। किसी ऐरे गैरे नत्थू खैरे की हवस का शिकार न बनो मेरी लाडो। दिल के दरवाजे खुले हो कोई बात नहीं, पर अपनी सूझबूझ, अपनी शिक्षा का लगाम कसकर रखो।  नाजुक कलियाँ हो तुम, पर कोई मसल दे, मंजूर न करो। प्रण करो, कोई आफताब श्रद्धा को बेमौत नहीं मार पाएगा, अपने आप को सक्षम, सजग बनाओ। शक्ति रूप देवी हो तुम। कोई तुम्हारे अस्तित्व को छिन्नभिन्न करें, सबक सीखाओ उसे, जीवनभर याद रखे। कसकर जड़ो तमाचा। अपनी सुरक्षा अपने बल पर हो। आत्मविश्वास  जरुरी हैं, अति विश्वास नहीं।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८