कहानी

सुपुत्र

राम नारायण के इकलौते बेटे की छह महीने पहले आईटी कंपनी में बी टेक के बाद प्लेसमेंट हुआ था। बढ़िया नौकरी मिली थी। छोटे से कस्बे के रामनारायण और उनकी पत्नी छाया आज आकाश में उड़ रहे थे, बेटा गगनवीर सर्विस लगने के बाद पहली बार घर आ रहा था।
अपने हिसाब से दोनो ने मिलकर छोटे से घर को चमका दिया था। रामनारायण प्राइमरी स्कूल के बच्चो को पढ़ाते थे, हमेशा से सीमित साधन में घर परिवार चलाते थे। छाया ने बेटे के पसंद के सब व्यंजन बना रखे थे। शाम को ट्रेन से गगन घर आने वाला था।
तभी रामनारायण जी के बचपन के दोस्त रघु आये और बोले, “क्या बात है, आज तो घर का नक्शा जी बदला लग रहा।”
“दोस्त, मालूम नही क्या, मेरा बेटा पुणे से आने वाला है, बहुत बड़ी कंपनी में इंजीनियर है।”
“सुनो, रामू मास्टर, जरा समझदारी से काम लेना, बहुत ज्यादा उम्मीद मत रखो, आजकल के बच्चे किसी की नही सुनते, मेरा भतीजा दिल्ली गया, अपने मम्मी पापा से बात भी नही करता, लाखो में खर्च करके पढ़ाया, अब बोलता है, बहुत खर्चा है, कुछ बचता ही नही।”
“सही कहते हो, मैंने भी ज्यादा उम्मीदें नही रखी हैं, वैसे पहले माह से ही वो हर महीने बीस हज़ार घर भेजता है।”
शाम को नियत समय पर गगन घर आया, लगा वो अपने साथ सारे गगन के तारों की चमक भी ले आया। घर जगमगा रहा था। अपने माँ, बाबूजी के पैर छूकर गले लग गया और बोला, “अब आपलोगो को ज्यादा दिन यहां नही छोडूंगा, कष्ट के दिन गए।”
“अरे बेटा, अभी तो तुमको बहुत उन्नति करना है , चलो, पहले चाय और तुम्हारे पसंद की अरुई की पकौड़ी खाओ, फिर बाते होती रहेंगी।”
“अरे वाह, माँ जल्दी लाओ, तरस गया, तुम्हारे हाथ के खाने के लिए, होटल का खाना दो दिन के बाद बेकार लगने लगा।”
खा पीकर गगन अपना सामान खोलने लगा।
“माँ, बाबूजी मेरे सामने आकर बैठिए…
“हां बोल बेटा।”
“बाबूजी, ये अटैची में आपका सामान, खोलिए, माँ को दिखाइए।”
एक दर्जन बनियान, पांच रेडीमेड शर्ट, पैंट, एक जोड़ी स्लीपर और एक बढ़िया शूज…
माँ की अटैची में पांच सूती साड़ियां, पांच सिल्क की साड़ियां…
“हे भगवान, ये क्या किया बेटे, पूरी सैलरी इसी में लगा दी क्या।”
बाबूजी, आपको पता है मैंने बचपन से बहुत सूक्ष्मता से देखा है, और डायरी में लिखता गया, मेरे पापा मनुष्य के रूप में घर के देवता है, एक फटी बनियान में सालभर रहकर बेटे की हर पुस्तक कॉपी पेंसिल पहली बार मे घर लाते हैं। दो शर्ट साल भर धोकर प्रेसकर एकदम स्मार्ट नजर आते हैं। मुझे कॉलेज में पढ़ा सके इसलिए पैसे चुपके से बचाते रहे, चाय की जगह गर्म पानी पीकर काम चलाते रहे, दिनभर में एक बार भोजन करूंगा, ये नियम बना लिया, शाम को ट्यूशन लेने लगे। माँ ने घर का सारा काम अकेले किया अपने सब गहने बेचकर मेरी फीस भरी। जब मेरी सर्विस लगी मैंने प्रण किया, अपने माँ बाबूजी की हर उम्मीद पूरी करूंगा।
आप अब साईकल सजाकर रख दीजिए, आपकी एक्टिवा बुक हो गयी।
आओ बेटा गले लग जाओ, मैं दुनिया की बातों से थोड़ा भयभीत जरूर था, पर आज तुम मेरी उम्मीदों पर खरे उतरे।
– भगवती सक्सेना गौड़

*भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर