कविता

नया साल

कंधे पर गैंती उठाए
एक नन्हा मज़दूर
नंगे पांव, अर्द्ध वस्त्र
कड़कड़ाती सर्दी
सड़क के किनारे
अपनी मज़दूर मां के पीछे पीछे
चल रहा है
भविष्य से बेखवर
सूर्य ढ़लने की ओर
खूब सजे हैं बाज़ार
मिठाईयों की सुरभि
ललचाती यिहबा
कुछ माटी के दीपक
रंग बिरंगी मोमबत्तियां
क्या मालूम?
किस घर में देंगी रौशनी
मज़दूर मां ने रोज़ की तरह
ग़ले सड़े फल लिए
कुछ आटा, कुछ दाल
मछलियों के फैंके हुए सिर उठाए
थकान की टूटन लिए
चल पड़ी झौंपड़ी की ओर
ईंटों के चूल्हे पर
रोटियां छेंकीं
थका मांदा शरीर लिए
लेट गई ज़मीन की चारपाई पर
लपक के सो गए बच्चे उस के साथ
ऊँचे महलों में पटाखे चले
रात के बारह बजे
रौशनियों से भरा आसमान
नन्हें मज़दूर ने उठ कर पूछा,
मां, यह क्या हो रहा है?
मां ने कहा, चुप, सो जा
सुबह तड़के जाना (जाना) है
मज़दूरी के लिए,
कुछ नहीं है,
कमबख्त, नया साल है।

— बलविन्दर बालम

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409