कविता

एक औरत

गरदन झुकी, वह थी खड़ी
दुकान की दहलीस पर
“बनिया बिया,
पाँच किलो आटा…”
बढ़ाती वह वही पर्चा
प्रतिदिन हिसाब लिखता आता
फिर
सिर उठाकर
मंद हँसी हँसकर
कर दिया मन का बोझ हल्का
मगर गोद का…
तृण पर चमकती ओस की
उम्मीद से वह थी तड़पती

“छोड़ दे हाथ – बनिया भैया”
वह तीसरी बार थी
रोका नहीं जा सका
मर्दानगी चढ़ी थी भैया की
हाथ की मरोड़ बिजली कैसे
बदन भर दौड़ रही थी

सुना था, मौका मारनेवाला
पर्चे पर खाली जगह नहीं थी बची
बेबसी पर कीमत लगाकर
मुनाफ़ा कमाने लगा बनिया

पतवार खो चुकी थी जिसकी
जिंदगी की किश्ती उसकी
हिलोरें वश में ले रही थीं

वापस घूमी, भागूँ सोची
कदम लौट रहे ही थे
लटकते चिलमन की
एक ओर सिलाई निकली थी जिसकी
ठीक मेरी तरह
हवा की तेज़ी ने
एक तीली गिरा दी थी
वह चौंक उठी
अपने लिए न सही
आज का यही था नया पर्चा
लौटते पग लौट रहे थे
वह आँखें मूँद रही थी

— डी. डी. धनंजय वितानगे