दोहे “जीवन देती धूप”
फिर से कुहरा छा गया, आसमान में आज।
आवाजाही थम गयी, पिछड़ गये सब काज।।
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खग-मृग, कोयल-काग को, सुख देती है धूप।
उपवन और बसन्त का, यह सवाँरती रूप।।
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तेज घटा जब सूर्य का, हुई लुप्त सब धूप।
वृद्धावस्था में कहाँ, यौवन जैसा रूप।।
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बिना धूप के निखरता, नहीं किसी का रूप।
जड़, जंगल और जीव को, जीवन देती धूप।।
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भँवरा गुनगुन कर रहा, तितली करती नृत्य।
खुश होकर करते सभी, अपने-अपने कृत्य।।
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दुनिया एक सराय है, लोग यहाँ महमान।
राह सरल हो जायगी, कम रखना सामान।।
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नहीं मान-अपमान की, चिन्ता करना मित्र।
जिसमें तुम रँग भर सको, वही बनाना चित्र।।
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राह जटिल कुछ भी नहीं, तज देना अभिमान।
माँगे से मिलता नहीं, दुनिया में सम्मान।।
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अनुभव अपने बाँटिए, सुधरेगा परिवेश।
नवयुग को दे दीजिए, जीवन के सन्देश।।
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महादेव बन जाइए, करके विष का पान।
धरा और आकाश में, देंगे सब सम्मान।।
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धोखा देता जगत में, आकर्षक परिधान।
रहता सत्तर साल में, कोई नहीं जवान।।
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प्रजातन्त्र का सिरफिरे, भूल गये हैं अर्थ।
सर्व धर्म समभाव से, बनता देश समर्थ।।
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)