कविता

वर्किंग वुमन

उठती हूं सुबह तड़के
नर्म गर्म बिस्तर को तज के
बनाती हूं पूरे घर की चाय
कूट देती हूं अदरख संग अपनी कुछ इच्छाएं
चाय के साथ खुद भी खौलती हूं
अपने आप से ही कुछ बोलती हूं
शक्कर मिलाकर लाती हूं मिठास
जुबा पर लगाती हूं ताला ताकि रिश्तों में ना आए  खटास
नाश्ता, खाना टिफिन निपटती हूं सारे काम
समय का भी नही रख पाती कुछ ध्यान
रोज ही पहुंचती हूं दफ्तर लेट
नाराज़ रहता है कंपनी का सेठ
बेतरतीब  से बाल
नाखून में मिलता है सूखा हुआ आटा
याद नहीं लास्ट  बाल कब काटा
हाथ को फाइल के नीचे छुपा कर
चेहरे पर मुस्कान चढ़ाकर
करती हूं मीटिंग और बाकी काम
फिर जाने कब घिर जाती हैं शाम
देख अंधेरा घर जाने का आता है ध्यान
सोचती हूं बच्चे हो रहे होंगे परेशान
थक हार कर, आती हूं घर
रहती हूं थोड़ा डर डर कर
अनकिए अपराध बोध से ग्रसित
अनकहे आरोपों से भ्रमित
घुसजाती हूं किचन में बनाती  हूं सबकी पसंद का खाना
दुहराती हूं मन में कल दफ्तर वक्त पर है जाना
निपटा कर सारे काम करती हूं विश्राम
किन्तु तन मन को फिर भी नही मिलता आराम
मैं कामकाजी स्त्री हूं।
घर रूपी गाड़ी की एकमात्र मिस्त्री हूं।
— प्रज्ञा पांडेय मनु

प्रज्ञा पांडे

वापी़, गुजरात