सामाजिक सरोकार
जीव मात्र सामाजिक प्राणी हैं,उन्हे साथ चाहिए ये बात पक्की हैं।उसमे चाहें कौए हो या चिड़िया सब अपनों के संग दिन में एक बार उड़ान भरते ही हैं,चिड़ियां सुबह के समय तो कौए शाम के समय आते हैं, बंदर झुंड में,चलती हैं गाएं भैंसें भी झुंड में।बकरी और भेड़ें भी तो एक साथ चलती हैं तो मनुष्य तो ज्यादा ही सामाजिक प्राणी हैं तो उसे तो रिश्तदारों और दोस्तों की अधिक आवश्यकता हैं।
जीवन में दुःख सूख तो आते जाते रहते हैं उस में साथ देने वाले दोस्त और रिश्तेदारों का होना आवश्यक हैं।सुख में हिस्सेदारी हो तो बढ़ता हैं और दुःख में हिस्सेदारी हो तो उसमें कमी आ जाती हैं।
एक सुभग संयोग होता हैं अपनों का।एक दूसरे के प्रश्नों के लिए चिंता रहती हैं।सरोकार रखते हैं अपनों की चिंता भी रहती हैं।मनुष्य का सामाजिक प्राणी होना कह कर छूट नहीं जा सकते एक दूसरों के लिए परवा करना भी जरूरी होता हैं।
अपने आस पड़ोस के लोगों से हम मिल जुल कर रहना और शिष्टाचार से अभिवादन करना ही काफी हैं।एक एक ही स्वस्थ मुस्कान ही किसी के चित्त को प्रसन्न करने के लिए काफी हैं।तो ऐसी मुस्कान के मायने ही बदल जाते हैं और रिश्तों में मिठास ही आ जाती हैं।जब रिश्ते मीठे होते हैं तो समाज में मधुरता प्रसर जाती हैं।एकरसता का उद्भव होता हैं, आपसी रिश्ते भी अच्छे रहते हैं।
कईं लोगो का अभिगम समाज के प्रति नकारात्मक होता हैं,उन्हे किसी से भी कोई सरोकार नहीं रखना होता हैं,वे कहते हैं,”let them have their business,let me mind my business.” ऐसे लोगों को कभी किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी ऐसे वहम पाल के बैठे रहते हैं।एक बात सुनी थी,एक आदमी नदी में बहा जा रहा था तो एक अंग्रेज बोलता हैं,” कोई मेरी उस आदमी से पहचान करवाओ तो मैं उसे बचा सकूं।”बिना पहचान के तो ये लोग जान भी नहीं बचा सकते हैं।आजकल ये संस्कृति अपने यहां भी प्रचलित होती जा रही हैं।पहले अपने देश में मानसिक सारवार की कम ही जरूरत पड़ती थी।अब जब से पश्चात संस्कृति का असर आने लगा है तब से ये सारवार पद्धति व्यापक होती जा रही हैं।अपने पड़ोसी,शहर वासी,राज्य वासी और देश वासियों की ओर भावशुन्यता बढ़ती जा रही हैं।
” सानू की ” वाली विचारधारा बढ़ती जा रही हैं।अगर सामाजिक सरोकार सकारात्मक नहीं रख सकते उसका सामाजिक स्वीकार नहीं हो पायेगा वे अलग थलग होके रह जायेंगे जिसकी कद्र वे समय आते ही पहचान पाएंगे।
— जयश्री बिर्मि