कथा साहित्यलघुकथा

कानून का ताला /सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

“तेरी इतनी अच्छी लघुकथाओं को न लाइक मिलते हैं और न ही वाहवाही भरे कमेंट! फिर भी तू खुश रहता है?” क ने ख की पीठ पर धौल देते हुए कहा।
ख बोला, “हाँ, जितनी कम आमद, उतनी ही कम टेंशन!”
क ने कहा, “मेरी लघुकथा को सौ से कम लोग पसन्द करें तो मुझे उलझन होने लगती है। मैं बाकायदा इसका कारण खोजता हूँ और रचना को सुधारता हूँ।”
“कैसे सुधारते हो, बंधु ? क्या विचार मंथन करके…?” ख ने पूछा।
क आत्मप्रशंसा में बोला, “अरे नहीं! कौन दिमाग खपायेगा ! बस बहुत ज्यादा पसंद किए गए पोस्ट के घटनाक्रम में से दो चार पंक्तियों को उड़ाकर, खुद की कथा में डाल देता हूँ । अब इतना हुनर तो है ही मुझमें।”
“बस इसी डर से तो मैं नहीं चाहता कि मेरा लिखा प्रचारित हो। लाइक फिर भी ठीक है, लेकिन जब ज्यादा शेयर होने लगता है तो मैं डरने लगता हूँ चोरों से।” ख ने शंका जाहिर की।
“तूने मुझे चोर कहा!” क ने ख को घूरकर देखा।
ख बोला, “नहीं! नहीं ! यार। मेरी ऐसी मज़ाल..! मैंने तो चोर-चोर मसौरे भाइयों को चोर कहा! जानता ही है तू कि फेसबुक पर उल्टा चोर कोतवाल को भी डाँट सकता है|”
क थोड़ी देर उसकी तरफ देखता हुआ सोचता रहा, फिर बोला, “तब ठीक है।”
“अक्ल होती तो तू कॉपी छाप लेखक थोड़ी होता..!” सिर नीचे करके मन ही मन बुदबुदाया ख! फिर उससे कहा, “यार, नकल में कितनी भी अकल लगाई जाए लेकिन नकल तो नकल ही है न?”
क आत्मविश्वास से बोला, “अरे, जब तक कोई कानून का दरवाज़ा नहीं खटखटाता है तब तक ये सब चलता रहेगा। और अकल गयी तेल लेने, हमारी प्रसिद्धि तो हो ही रही है। भाई, तेरे पास अकल है लेकिन चार लोग भी तुझे नहीं जानते हैं। फिर इस अकल का क्या फायदा?”
“ये तो अकल की बात की तूने! यही अकल कुछ लिखने में लगाया कर। आखिर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी!” ख ने मुस्कराकर कहा।
फिर कनखियों से उसे देखता हुआ मन ही मन बुदबुदाया, “आज तेरी नकल की पोस्ट पर रेड पड़ ही गयी है। कुछ ही देर में फेसबुक के सिपाही असल-नकल के सारे सबूतों के स्क्रीन शॉट ले लेंगे। फिर क्षण भर में तेरे सिर से प्रसिद्धि का भूत उतर जायेगा।”
क बोला, “कहाँ खो गया यार! अकल को मार गोली, चल पिक्चर देखने चले।”
“कौन सी?”
“बा बा ब्लैक शीप”
“नहीं यार! रेड..(raid) !” ख ने व्यंग्यात्मक मुस्कान फेंकते हुए कहा।
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*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|