कविता

जीवन पथ

हां रोता हूं मैं, क्रोध में कुढ़ता भी हूं
बस कह नहीं पाता हूं
आंसूओं संग हर दर्द पी जाता हूं।
जानता हूं पर विवशता भी है
जो सिर्फ दर्द ही बढ़ाता है
पर अपने होने का मतलब भी समझ में आता है
फिर क्या शिकवा कैसी शिकायत
करें भी तो कैसे करें मुझसे
अपना अपमान करें भी तो कैसे?
किसी को आंसू दे नहीं सकते
किसी का हक छीन भी नहीं सकते
रिश्ते निभाने हैं तो दर्द भी सहना पड़ेगा
पता है फ़र्ज़ निभाने के लिए
तिल तिल कर मरना भी पड़ेगा।
ऐसा इसलिए कि दायित्वों का बोध है मुझे
तमाम चेहरों की खुशी की खातिर
सब सहना ही पड़ेगा।
आज फिर आंसुओं ने झकझोर दिया
ऐसा लगा कि ये मैंने क्या किया।
पर जीवन ऐसे ही चलता है
दोष किसी का भी नहीं है
पर हम तुम सब दोषी हैं
क्योंकि यही तो जीवन चक्र है।
जहां हम सब कठपुतली भर हैं
जहां हम सब रोते भी हैं, हंसते भी हैं
जीवन में आगे बढ़ते रहते हैं।
जिंदगी के रंग बदलते रहते हैं।
चाहें या न चाहें, रिश्ते निभाने, ठुकराते भी हैं
जीवन पथ पर बढ़ते जाते हैं।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921