सामाजिक

आधुनिकता वरदान या अभिशाप

प्रगति सब ही क्षेत्र में आवकारदाय है।प्रहलें हम पैदल या बैल गाड़ियों,घोड़ा गाड़ियों आदि में प्रवास करते थे।धीरे धीरे बसें ट्रेन आई फिर उनका आधुनिकतम रूप आया।अब तो हवाई जहाज़ के साथ साथ बुलेट ट्रेन आदि भी उपयोग में प्रवास करना उपलब्ध है।इतनी प्रगति करने के लिए हम ने बहुत कुछ खोया है। पहले हम प्रकृति के बहुत पास थे जिससे स्वास्थ्य, मानसिक और शारीरिक सही रहता था।संतुष्टि की भावनाएं अधिक थी किसी किस्म की कडी प्रतिस्पर्धा नहीं थी।सब चीज अपने ही शहर और गांव में बनती थी तो उसके लिए किसी किस्म ट्रांपोर्टेशन की जरूरत नहीं पड़ती थी।गांव या शहर की सभी जरूरतें स्थानिक उत्पादों एसडी पूरी हो जाया करती थी।जरूरतें भी सीमित थी,कोई फालतू खर्च करने में मानता नहीं था। ज्यादा वाहनों के चलने से प्रदूषण बढ़ता हैं जो उस वक्त कम या नहीवत था।सादा रेहनसहन और उम्दा विचारों और आस्था का जमाना था।इतनी प्रगति करके हमने बहुत भौतिक सुख तो पा लिया लेकिन मन की शांति और चैन को खो दिया है। जिससे आजकल मनोचिकित्सकों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है।मानवी मानसिक तौर पर अपाहिज सा हो गया हैं।
 पहले घरका बना पौष्टिक खाना खाया करते थे।महिलाएं घर की सारी जिम्मेवारी उठाया करती थी और मर्द बाहर के कामों के संग कमाई के लिए जिम्मेवार हुआ करते थे।अब आर्थिक कार्यों में स्त्री भी हिस्सा लेने लगी है तो गृहव्यवस्था डगमगा सी गई हैं।आर्थिक रूप से सक्षमता बढ़ने की वजह से बेहिसाब खर्च और उन खर्चों को पूरा करने अधिक आमदनी के लिए दौड़ भाग से स्वास्थ्य संबंधित प्रश्नों में  बढ़ोतरी होती जा रही है।आदमी यंत्रवत कमाने की होड़ में लग गया है। भावशुन्यता बढ़ती जा रही है,औपचारिकता बढ़ती जा रही है।भौतिक सुखों के पीछे रिश्तों की बलि चढ़ाई जा रही है।
इन हालातों में शारीरिक तकलीफें बढ़ती जा रही है,में नई नई बीमारियों के नाम सुनाई दे रहे है।मेडिकल साइंस ने भी बहुत प्रगति की हैं,नए नए जोकर्ण और दवाइयों के अविष्कार से निंदगिया बचा लो जाती है  लेकिन कभी कभी तो जिंदगी को लंबा खिंच ने के चक्कर में बीमारों की जिंदगी को सिर्फ खींचा जाता है जिसमे जीवन कम और मौत ज्यादा नजर आती है।
आधुनिक बनने के चक्कर में अपने संस्कार और संस्कृति का हनन हो रहा है।अंधे अनुकरण के चक्कर में नैतिक पतन की और अंधाधुंध दौड़ लग गई है।शादी जैसे सामाजिक संस्कार को भूल लोग बिनब्याहे ही अपनी सहूलियत के हिसाब से साथ रहते है।ये गृहस्थी की परिभाषाएं बदल ने ओर तुले समाज की अवनति या उन्नति माना जाएं ये यक्ष प्रश्न  बन गया है।
 अगर सभी आयामों को मद्दे नजर रखें तो भौतिक मामलों की प्रगति वरदान से लगते है।आराम की जिंदगी कोई पहले जैसे शारीरिक श्रम के बिना सुविधाओं से भरी जिंदगी मिली है,आधुनिकता में किंतु नैतिक और भावनात्मक पतन की और जिंदगी को ले जाया जा रहा है।दुनिया में बढ़ते परिवहन की वजह से सभी देश बहुत नजदीक आएं,एक दूसरे देश के संशोधन के साथ वहां के रीती रिवाजों का आना सामान्य बात है किंतु अपने संस्कारों को छोड़ उन्हे अपना लेना हमारी गलती ही नहीं मूर्खता का प्रमाण है।जो देश सदियों की गुलामी के बाद जिस संस्कारों को बनाएं रख सका उसी देश में पश्चात संस्कारों का अतिक्रमण संस्कृति का नाश करने के लिए पर्याप्त है।
 अब ये आपकी निजी सोच पर आधारित है कि आधुनिकता या प्रगति वरदान है या अभिशाप।मेरे हिसाब से तो भौतिक प्रगति वरदान तो है किंतु सामाजिक,भावनात्मक आदि दृष्टि से ये घोर अभिशाप है।
— जयश्री बिर्मि 

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।