कविता

मैं वक्त हूं

मैं वक्त हूं
सदा चलता, ही जाता।।

बिना थके, बिना रुके
चलते रहना, काम मेरा
आप चाहे भले, सुस्ता लें
मुझे सुस्ताना, नही आता ।

मैं वक्त हूं
सदा चलता, ही जाता।।

पीछे मुड़कर, मैं नही देखता
आगे ही सदा, बढ़ता रहता
धीरे-धीरे , लोगों के
ज़ख्मों पर , मरहम लगाता।

मैं वक्त हूं
सदा चलता, ही जाता ।।

मेरी कीमत, जो न समझता
वक्त आने पर, उसे सिखाता
एक बार गर, चूक गए
फिर जीवन भर, रहता पछताता

मैं वक्त हूं
सदा चलता, ही जाता।।

मेरे साथ जो, घुल- मिल जाता
रहता प्रसन्न, प्रगति कर जाता
मेरा सम्मान, पता है जिसको
हर क्षण का, आनंद उठाता।

मैं वक्त हूं
सदा चलता ,ही जाता ।।

सारा खेल तो, कर्मों का है
जो जैसा करता, वैसा ही पाता
फिर भी नाकामियों, का दोष
क्यों मेरे मत्थे , मढ़ दिया जाता।

मैं वक्त हूं
सदा चलता ,ही जाता।।

बुद्धिमानी से, उपयोग जो करता
उसको मेरा भी,सहयोग मिलता
थोड़ा धैर्य जो, करता धारण
मैं भी कदम से, कदम मिलाता ।

मैं वक्त हूं
सदा चलता, ही जाता।।

मेरी गति तो, सदा समान है
फिर भी न मुझको, कुछ गुमान है
तू तो क्षण भर का, मेहमान है
किस बात पर, इतना इतराता।

मैं वक्त हूं
सदा चलता, ही जाता।।

बिना थके, बिना रुके
चलते रहना, काम मेरा
आप चाहे, भले सुस्ता लें
मुझे सुस्ताना, नही आता ।

मैं वक्त हूं
सदा चलता, ही जाता।।
‌ मैं वक्त हूं
सदा चलता, ही जाता।।

— नवल अग्रवाल

नवल किशोर अग्रवाल

इलाहाबाद बैंक से अवकाश प्राप्त पलावा, मुम्बई