राजनीति

हिंदी दही ने बढ़ाई राजनीतिक खटास

राजनीति में कब कौनसे मुद्दे पर बवाल हो जाए यह कहा नहीं जा सकता है। जिसका उदाहरण हम भारत में कई दिनों से देख रहे हैं। बड़े बुजुर्गों की अनेक कहावतें करीब-करीब हर बार सटीक बैठती है। जिसकी लाठी उसी की भैंस, सौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली, चोर चोर मौसेरे भाई, मेरा अंडा सोने का तेरा मिट्टी का, मेरे बोल अनमोल तेरे बोल बेमोल सहित अनेकों ऐसी कहावतें हैं जो हमेशा सटीक बैठती है। एक ओर हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने पर जोरदार पहल हो रही है, तो दूसरी और मातृभाषा को तेजी से आगे बढ़ाने, विकास करने, बोलचाल में लाने से लेकर डॉक्टर, इंजीनियरिंग तक की पढ़ाई अब मातृभाषा में करने की होड़ पर बल दिया जा रहा है। आज दिनांक 30 मार्च 2023 को ही माननीय गृहमंत्री ने एक कार्यक्रम के संबोधन में कहा आज 20 ऐसे विश्वविद्यालय हो गए हैं जहां मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण की जा रही है।वहीं कुछ शासकीय संस्थाएं हिंदुस्तान में हिंदी पर बल दे रही है। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि दरअसल फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसए) ने अपने मार्च 2023 को कर्नाटक मिल्क फेडरेशन (केएमपी) को आदेश जारी किए थे कि दही के पैकेट पर हिंदी भाषा में प्रमुखता से दही लिखा जाए। बस फिर क्या था!! कि दक्षिणपंथी राज्यों में मुद्दा छा गया कि हिंदी को थोपने की कोशिशें की जा रही है और एक राज्य के मुख्यमंत्री के बयान सहित कुछ मंत्रियों, नेताओं के बयानों से विरोध दर्ज करवाना शुरू हो गया, आखिर 30 मार्च 2023 को एफएसएसएआई को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। चूंकि हिंदी दही ने कुछ दिनों के लिए राजनीतिक खटास बढ़ाई इसलिए आज हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग से इस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे, दही के पाउच पर हिंदी में दही शब्द के प्रयोग का आदेश को गैर हिंदी भाषी राज्यों ने हिंदी थोपना बताया और आदेश वापिस हुआ।
हम एफ़एसएसएआई के 10 मार्च 2023 के आदेश और 30 मार्च 2023 को आदेश वापसी को देखें तो, दक्षिण भारत की राजनीति में इन दिनों दही पर बवाल मचा हुआ है। देशभर में फूड सेफ्टी पर नजर रखने वाली स्वास्थ्यमंत्रालय की संस्था भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने हाल ही में एक आदेश दिया था, जिसके बाद भाषा विवाद फिर से सुलग उठा एफएसएसएआई ने दक्षिण भारत में दही बनाने वाली सहकारी संस्थाओं से कहा था कि वे दही के पैकेट पर दही ही लिखें, इस पर एक दक्षिणपंथी राज्य के सीएम ने केंद्र पर हिंदी थोपने का आरोप लगाया।लेकिन अब इस मामले पर विवाद बढ़ने पर गुरुवार को एफएसएसएआई पुराना आदेश रद्द कर नया निर्देश जारी किया। नई अधिसूचना जारी कर दही के पैकेट पर क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल करने की मंजूरी दे दी है। अधिसूचना में कहा गया है कि दही को इन नामों से भी लेबल किया जा सकता है जैसे ‘कर्ड (दही) ‘कर्ड (मोसारू), ‘कर्ड’ (जामुत दोद), ‘कर्ड (तयैर)’, ‘कर्ड (पेरुगु) असल में एफएसएसएआई ने कर्नाटक के ‘नंदिनी’ ब्रांड के उत्पादक मिल्क फेडरेशन (केएमएफ) और आविन ब्रांड के उत्पादक को निर्देश दिया है कि दही के पाउच पर हिंदी में ‘दही’ शब्द का प्रयोग किया जाए। निर्देश में कहा गया था कि ‘कर्ड’ (अंग्रेजी) या ‘तायिर’ (तमिल) की जगह अब ‘दही’ (हिंदी) में लेबल किया जाएगा तथा यह भी कहा कि तमिल के “तैयर” या जैसे शब्दों को कोष्ठक में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस आदेश के बाद तमिलनाडु में विवाद खड़ा हो गया, सीएम ने इस फैसले को हिंदी थोपना बताया।उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा कि हिंदी थोपने की बेहिचक जिद हमें एक दही के पैकेट पर भी हिंदी में लेबल लगाने के लिए निर्देश दे दिया गया है। हमारी मातृभाषाओं के प्रति इस तरह की बेरुखी से यह सुनिश्चित हो जाएगा कि जिम्मेदार लोगों को दक्षिण से हमेशा के लिए बाहर कर दिया जाएगा। इस निर्देश की दक्षिणपंथी राज्यों ने निंदा की है और इसे हिंदी को थोपे जाने की कोशिश बताया। इस विवाद के बीच टीएन बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष के भी हिंदी के विरोध में उतर आए हैं। उन्होंने गुरुवार (30 मार्च) को पैकेट से दही शब्द हटाने के एफएसएसएआई के फैसले का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि हम टीएन बीजेपी की ओर से भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण की नई अधिसूचना का स्वागत करते हैं। उन्होंने कहा कि एफएसएसएआई की ओर से जारी की गई अधिसूचना को वापस लेने के हमारे अनुरोध पर विचार करने और राज्य संचालित सहकारी दुग्ध समितियों को दही के पाउच पर ‘दही’ के बजाय अपनी क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल करने की अनुमति देने के लिए आभार जताते हैं। अब कहा गया कि वह अपने पैकेट पर हिंदी शब्द ‘दही’ के बजाय पहले की तरह तमिल शब्द ‘तायिर’ का ही इस्तेमाल करेगा।
हम साल 1947 में स्वतंत्रता के बाद भाषा को लेकर समस्या को देखें तो, 26 जनवरी, 1965 को हिंदी देश की राजभाषा बन गई और इसके साथ ही दक्षिण भारत के राज्यों- खास तौर पर तमिलनाडु (तब का मद्रास) में, आंदोलनों और हिंसा का एक जबरदस्त दौर चला और इसमें कई छात्रों ने आत्मदाह तक कर लिया। इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मंत्री रहीं इंदिरा गांधी के प्रयासों से इस समस्या का समाधान ढूंढ़ा गया जिसकी परिणति 1967 में राजभाषा कानून में संशोधन के रूप में हुई। उल्लेखनीय है कि इस संशोधन के जरिए अंग्रेजी को देश की राजभाषा के रूप में तब तक आवश्यक मान लिया गया जब तक कि गैर-हिंदी भाषी राज्य ऐसा चाहते हों, आज तक यही व्यवस्था चली आ रही है। ऐसी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी दिख रही है।
हम नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को देखें तो इसमें तीन भाषा का फॉर्मूला लागू करने के प्रस्ताव के चलते विवाद उठ खड़े हुए थे। इस प्रस्ताव के बाद दक्षिण भारतीय राज्यों में उनके ऊपर हिंदी को थोपे जाने के आरोप के साथ प्रदर्शन शुरू हो गए थे। नए ड्राफ्ट में हिंदी अनिवार्य होने वाली शर्त को हटा दिया गया था। 3 जून 2019 की सुबह केंद्र सरकार ने शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में बदलाव की घोषणा की थी। नई शिक्षा नीति के संशोधित ड्राफ्ट में अनिवार्य की जगह ‘फ्लेक्सिबल’ शब्द का उपयोग किया गया है यानि स्कूल खुद तीसरी भाषा का चयन कर सकते हैं। ऐसे में यह तय हो गया है कि ज्यादातर दक्षिण भारतीय स्कूलों में हिंदी अभी भी तीसरी भाषा के तौर पर नहीं पढ़ाई जाएगी।
हम हिंदी भाषा के राष्ट्रीय महत्व को देखें तो, यह सही है कि दक्षिण के कुछ राज्यों में हिन्दी के विरोध में स्वर मुखरित किए जाते रहे हैं। इन राज्यों के विरोध का सबसे बड़ा सच यह भी है कि इस विरोध में राजनीतिक कारण ही दिखाई देता है। यानी हिन्दी के विरोध में राजनीतिक आंदोलन किए जाते रहे हैं, जबकि जनता की भागीदारी नहीं के बराबर ही होती है। इसे हिन्दी का राजनीतिक विरोध कहा जाए तो अधिक समुचित होगा। हिन्दी के विरोध से दक्षिण भारत के नेताओं के सियासी लाभ की बात तो समझ में आती है। लेकिन इससे वहां के आम लोगों का बड़ा नुकसान होता है। हिन्दी नहीं आने के कारण वहां के अधिकांश युवा रोजी-रोटी की तलाश में मुंबई, दिल्ली, कोलकाता या अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में नहीं जा पाते हैं। फिर उनके अपने राज्य में रोजगार या नौकरी की बहुत गुंजाइश नहीं बची है। नतीजतन वहां बेरोजगारी बड़ी समस्या है। देश के हिन्दीभाषी राज्यों से जानेवाले पर्यटकों का गाइड भी वही बन पाते हैं जिन्हें टूटी-फूटी ही सही, लेकिन हिन्दी आती है। राज्य की ओर से हिन्दी भाषा के विरोध में बहुत कुछ बोला जाता है। सवाल यह है कि हिन्दी राष्ट्रीयता की पहचान होने के बाद भी दक्षिण के राज्य हिन्दी से घृणा क्यों करते हैं? भारत की मूल भाषा हिन्दी का भले ही देश के सभी राज्यों में समान सम्मान नहीं मिल रहा हो, लेकिन हिन्दी भाषा पहले से भी और वर्तमान में भी वैश्विक सम्मान को प्रमाणित करती हुई दिखाई दे रही है। आज विश्व के कई देशों में हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। कुछ समय पूर्व आबू धाबी में हिन्दी को तीसरी भाषा के रुप में मान्यता मिलना निश्चित तौर पर हिन्दी की गौरव गाथा को ध्वनित करता है। लेकिन हमारे राज्यों में हिन्दी के प्रति इतना राजनीतिक आक्रोश क्यों? क्या यह केवल विरोध करने के लिए ही विरोध हो रहा है। हम यह भी समझें कि राष्ट्रीयता क्या होती है। राष्ट्रीयता के निहितार्थ क्या हैं? जब यह समझ में आएगा तो स्वाभाविक रुप से हिन्दी का महत्व भी समझ में आ जाएगा। विविधता में एकता ही भारत की विशेषता है, फिर हम क्यों अपनी विविधता वाली संस्कृति से दूर होने का उपक्रम कर रहे हैं। हिन्दी की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता को हम भले ही कम आंक रहे हों, लेकिन यह सत्य है कि इसका हमें गौरव होना चाहिए। भारत में हिन्दी की संवैधानिक स्वीकार्यता रही है। कई संस्थाएं हिन्दी को राजभाषा के रुप में प्रचारित करती हैं तो कई मातृभाषा के रुप में। दक्षिण के राज्यों में भी अब हिन्दी बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसलिए यह तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी लगातार अपना विस्तार कर रही है।
— किशन सनमुख़दास भावनानी

*किशन भावनानी

कर विशेषज्ञ एड., गोंदिया