लघुकथा – वापसी
अजय बाबू सिग्नल की बत्ती के हरी होने का इंतजार कर रहे थे। गाड़ी की पिछली सीट पर बैठा उनके बेटे बेटा रोहन ने कहा, “पापा,देखो बाइक में वह बच्चा कितना खुश है, मेरे नसीब में उसके समान खुशी क्यों नहीं है?”
“नहीं बेटा,ऐसा नहीं कहते। तुम्हें तो हर चीज उपलब्ध है। घर में आया है,बढ़िया स्कूल में तुम्हारा दाखिला करा दिया है।घर पर ट्यूटर भी आता है तुम्हें पढ़ाने।” अजय बाबू ने रोहन को समझाने की कोशिश की।
“लेकिन माँ का प्यार तो नहीं है मेरे नसीब में। आपसे झगड़ा कर मांँ चली गई।क्यों नहीं रोका आपने माँ को?”
बेटे के इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं दे पाए अजय बाबू। उन्होंने झट मोबाइल निकाला और अपनी पत्नी को व्हाट्सएप किया, “सॉरी सुरभि! असल में मैं बहुत तनाव में था और तुम्हारी बातों की अनदेखी कर दी। तुम अपनी बात मनवाने की जिद पर अड़ी रही और गुस्से में मैंने तुम पर हाथ उठा दिया। अपने रोहन के लिए कृपया वापस लौट आओ।”
— निर्मल कुमार दे