लघुकथा

चीर हरण

दुर्योधन दास,  टेंडर स्वीकृत हो जाने पर बहुत खुश है।  हज़ार किलोमीटर फैला अरण्य प्रदेश, जहाँ विकास के बीज बोये जाने है,  उस ज़मीन   को तैयार करना है।
प्रभु स्मरण, पूजा पाठ कर,आज सुबह अपनी  सेना के साथ हथियारबंद हो रण-क्षेत्र मे पहुँच गये । अरण्य के एक -एक वृक्ष पर घाव करती कुल्हाड़ी। परत – दर-परत टूटता श्रंगार। निरावरण, निवस्त्र होती धरा। सूरज की तेज किरणों से, आग सी धधकती वसुंधरा। व्याकुल, विचलित, शुष्क अधर।
“साहेब, पैर जल रहें हैं, गला सूख रहा है।  कहीं छाँह दिखे तो सुस्ता लें। “सैनिक विकर्ण ने कहा।
“कुल्हाड़ी और छाँह का, कहीं मेल है विकर्ण ?”दुर्योधन दास कुटिलता से मुस्कराये।
“साहेब जी, जंगल क्यों काटा जा रहा है? यहाँ के पशु- -पक्षी, फल-फूल, पेड़ -पौधों का क्या होगा?”
” यहाँ, बड़ी बड़ी कम्पनी, ऊँचे ऊँचे भवन, बड़े शहरों से जुड़ती सड़कें, नदी पर बाँध, बनेगा । समझो यहाँ टकसाले खुलेंगी। सोने चांदी की खेती होगी।”
“आदमी सोने- चांदी, अपनी सांसे बेचकर खरीदेगा क्या?” विकर्ण के प्रश्न मे आश्चर्य और जिज्ञासा थी।
“तुम, यह समझ सकते तो प्यादे से वजीर न बन जाते विकर्ण ।” जीप मे बैठते हुए दुर्योधन दास ने कहा।
गला तर करने, और क्षुधा शांत करने, जीप धूल उड़ाते हुए होटल के रास्ते चल पड़ी। उड़ी हुई धूल के कुछ कण विकर्ण के चेहरे पर आकर चिपक गये। उन कणों को , हाथ मे लेकर, विकर्ण ने  माथे से लगा लिया । फिर जाती हुई जीप की दिशा की ओर देखकर बोला – “विनाश  काले विपरीत बुद्धि।”
— सुनीता मिश्रा

सुनीता मिश्रा

भोपाल sunitamishra177@gmail.com