लघुकथा

….दौलताबाद से दिल्ली !

 

“अजी, सुन रही हो भागवान ? सरकार ने दो हजार के सभी नोटों को वापस लेने की घोषणा कर दी है।” अखबार से नजरें हटाकर चाय की चुस्कियाँ लेते हुए नरेश तनिक जोर से बोला।
दरअसल रिटायर हो चुके नरेश रोज सुबह चाय पीते हुए इसी तरह अपनी धर्मपत्नी नलिनी को प्रमुख खबरें सुनाते थे और फिर उसे लेकर दोनों के बीच एक स्वस्थ बहस होती।
एक कप में चाय का कप थामे नरेश के नजदीक रखी कुर्सी पर बैठते हुए नलिनी बोली, “यह तो सरकार का बहुत अच्छा कदम है। सरकार को यह फैसला पहले ही कर लेना चाहिए था।”

चाय की चुस्कियाँ लेते हुए स्मित हास्य के साथ नरेश बोला, “कह तो तुम ठीक रही हो। मैं भी सहमत हूँ तुम्हारी इस बात से, लेकिन मैं इतिहास की उस घटना के बारे में सोच रहा हूँ जिसकी वजह से एक मुहावरा बन गया।”

“कौन सा मुहावरा ?” नलिनी उत्सुकता से बोली।

“वो मुहावरा नहीं सुना तुमने ? ‘दिल्ली से दौलताबाद, दौलताबाद से ….”
एक शरारती मुस्कान के साथ नरेश बोला, “क्या तुम जानती हो कि मोहम्मद बिन तुगलक से जुड़ी इसी घटना को लेकर एक और मुहावरा प्रचलित है ‘तुगलकी फरमान’ ?”

“ये तो बड़ी अच्छी जानकारी दी तुमने। इन दोनों मुहावरों का उपयोग तो लोग खूब करते हैं, लेकिन इससे जुड़े ऐतिहासिक तथ्य बहुत कम लोग जानते होंगे।” नलिनी नरेश के सामने तिपाई पर रखा चाय का कप उठाते हुए बोली।

“सवाल इस बात का नहीं है नलू ! सवाल ये है कि क्या इतिहास एक बार फिर खुद को दुहरा रहा है?”

 

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।