कविता

आदत

हम
तलाशते रहे हैं भीख
हर कहीं,
लिए अपने-अपने कटोरे
भटकने के आदी हो गए हैं जहाँ-तहाँ
जो कुछ चढ़ जाए भेंट भिक्षापात्र की
ग्रहण कर लेते हैं स्वेच्छ से
शिष्ट-उच्छिष्ट सब कुछ
आदर और कृतज्ञता भाव दर्शा कर,
हमें चाहिए
भीख
केवल भीख,
और भीख में हमें सब कुछ चाहिए
जो चापलुसी और बेशमी से मुफ्त में मिल जाए,
पद, मद और कद हो, दर्जा हो, जमीन-जायदाद हो या फिर
लोकप्रियता का कोई न कोई तेज बजने वाला झुनझुना
चाहे इसके लिए हमें
क्यों न रचना ही पड़े कोई सा स्वाँग
नंगे-भूखे होने का,
हमें अच्छी तरह पता है कि
श्वानों की तरह पूँछ हिलाते रहने मात्र से
अनुभवी लोग भ्रमित हो जाते हैं
हमारी वफादारी के कायल हो जाते हैं,
उन्हें भी तो आखिर
चाहिए होती है मूर्ख और भौन्दू भीड़
अंधानुचरों की रेवड़ें
जो करती रहें हर पल जयगान उनका
जैसा कि वे भी करते रहे हैं अपने आकाओं का
इसीलिए पक्का भरोसा है उनका
तमाम किस्मों के पालतुओं और फालतुओं पर,
हम सब भी तो जानते हैं
अपनी असलियत, औकात, अपने बीज की ताकत
और पुरुषार्थहीनता की जन्मजात कमजोरी,
हमें सिखाया भी तो यही गया है
औरों के टुकड़ों पर पलना
और मुफ्त में मौज उड़ाना।
इसके सिवा हमारी जिन्दगी का
कोई लक्ष्य नहीं,
हम सारे के सारे हैं एक-दूसरे के लिए
हर तरफ भरमार है
अपने जैसे ही समानधर्मा लोगों की
कोई बड़ा वाला है
और कोई छोटा वाला,
भिखारी सारे ही हैं
कोई घोषित
कोई अघोषित रहकर
पूरी की पूरी धींगामस्ती के साथ
जमकर उड़ा रहे हैं पराया माल
जैसे कि उनके बाप-दादा रख गए हों
इनकी बपौती मानकर।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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