लघुकथा – आत्मा की तृप्ति
“आज श्राद्ध कर्म संपन्न हो गया। ब्राह्मण भोज के बाद हित कुटुंबों ने भी भोज में शरीक होकर अपना फर्ज निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।”
“वो तो देख ही रहे हैं। खर्च भी बहुत हुआ होगा।”
“हाँ, इसमें कोई शक नहीं। पचास -साठ हजार रूपये तो जरूर खर्च होंगे। दिवंगत आत्मा की तृप्ति के लिए इतना कुछ तो करना ही पड़ता है।”
“लेकिन पचास -साठ हजार रूपये का इंतजाम नहीं हो पाया बेचारे रामू के इलाज के लिए। तीन दिन की बेहोशी में ही उसने सब माया त्याग दिया।”
“उम्र भी हो गई थी और बच भी जाता तो चलने फिरने के लायक नहीं रहता। लकवा मार दिया था।”
मैं आगे और कुछ क्या कहता? रामू की तृप्त आत्मा हँस रही होगी, मुझे ऐसा लगा।
— निर्मल कुमार दे