सामाजिक

बच्चे और हॉबी क्लासेस

दुनिया में शायद ही कोई बच्चा ऐसा होगा जिसे खेलना दौड़ना भागना मस्ती करना पसंद न आता हो ।अपने खाली समय में तो उसके ये शौक और भी अधिक बढ़ जाते हैं। पढ़ने के साथ-साथ खेलना भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि खेलने से व्यक्ति के मानसिक शारीरिक और संवेगात्मक विकास के साथ-साथ सामाजिक विकास भी होता है।बहुत पुरानी कहावत — पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब — यह कहावत आज के समय में कतई भी उपयुक्त नहीं मानी जाती क्योंकि वर्तमान समय में बच्चों का खेलना पढ़ने से भी अधिक महत्वपूर्ण समझा जाने लगा है क्योंकि आज की पीढ़ी के बच्चे मोबाइल लैपटॉप कंप्यूटर इन सब में इतना ज्यादा उलझ कर रह गए हैं कि वे स्क्रीन के सामने से हटना ही नहीं चाहते।ऐसे में उनका बौद्धिक विकास तो शायद हो जाता होगा किंतु संवेगात्मक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विकास नहीं हो पाता ।घर से बाहर निकलने में अब बच्चे कतराने लगे हैं ,ऐसे में दूसरे लोगों से घुलने मिलने में उन्हें हिचक महसूस होती है और वहीं से शुरू होती है उनकी सामाजिक बनने की प्रक्रिया से दूरी।समाज में लोगों से मिलना जुलना आज के बच्चों को बहुत ज्यादा नहीं भाता। वे अपने आप में ही व्यस्त रहने लगे हैं। उन्हें मोबाइल के सिवाय दूसरे किसी भी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मोबाइल उनको कंपनी देने वाला एक जीता जागता व्यक्ति ही बन चुका है ।किंतु, यह भी सच है कि दिन-रात मोबाइल और कंप्यूटर में आंखें गड़ाए रहने से बच्चे मानसिक अवसाद का शिकार भी होने लगे हैं क्योंकि अभिभावक और माता-पिता हर वक्त उन पर नजर नहीं रख सकते। ऐसे में बच्चे स्क्रीन पर मनचाहा देखते हैं और मोबाइल न मिलने की स्थिति में विद्रोह पर उतर आते हैं।
इस तरह की स्थिति उत्पन्न न होने पाए, इसके लिए देखा जा रहा है कि बच्चों के माता-पिता उन्हें विभिन्न प्रकार की हॉबी क्लासेज में भेजना शुरू कर देते हैं ताकि बच्चे कुछ समय के लिए घर से बाहर निकलें, मोबाइल से दूरी बनाएं और साथ ही साथ उनका सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक विकास भी भली-भांति हो सके। स्कूल खुले होते हैं तब बच्चों के पास इतना समय नहीं होता है कि वे इस प्रकार की हॉबी क्लासेस में जा पाएं क्योंकि स्कूल समय के बाद उनकी ट्यूशन कोचिंग इत्यादि होते हैं जिसके बाद खुद के लिए उनके पास समय ही नहीं बच पाता ।उनके पास वक्त की कमी होती है और वे खेलने पर उतना ध्यान नहीं दे पाते और यदि उनके पास कुछ समय होता भी है तो उस समय को वे मोबाइल देखने में लगा देते हैं ।इसलिए स्कूल से छुट्टियां होने के समय बच्चों के माता-पिता और अभिभावक चाहते हैं कि वे हॉबी क्लासेस जॉइन करें ताकि कुछ क्रियात्मक और रोजमर्रा से कुछ नया सीखने के साथ-साथ वे घर से बाहर निकल दूसरे लोगों से मिल सकें और खुले वातावरण में सांस ले सकें, अन्यथा तो घर की चारदीवारी या यूं कहें कमरे की चारदीवारी में बंद रहना आजकल के अधिकतर बच्चों की खराब आदत बन चुकी है।
आजकल जगह-जगह पर विभिन्न प्रकार की हॉबी क्लासेस आयोजित की जाती है जिसके लिए शुल्क निश्चित कर दिया जाता है ।यह भी सच है कि इन हॉबी क्लासेस के नाम पर आयोजकों द्वारा पेरेंट्स से मनमानी राशि वसूल की जाती है जिसे चुकाने में आजकल के पेरेंट्स भी पीछे नहीं हटते क्योंकि पैसे से अधिक उन्हें अपने बच्चों के स्वास्थ्य की चिंता होती है वे चाहते हैं कि पैसा खर्च करके यदि बच्चे घर से बाहर निकल रहे हैं, कुछ नया सीख रहे हैं मोबाइल से दूरी बना रहे हैं तो यह घाटे का सौदा नहीं अपितु एक निवेश है। दूसरा ,दूसरे बच्चों के पेरेंट्स की होड़ करने में भी इस प्रकार के पेरेंट्स पीछे नहीं रहना चाहते। दूसरे शब्दों में हॉबी क्लासेज के नाम पर देखा देखी भी आजकल बहुत अधिक बढ़ गई है,अर्थात एक दूसरे को देख कर भी कुछ पेरेंट्स अपने बच्चों को इस प्रकार की हॉबी क्लास ज्वाइन करवाने लगे हैं।
छुट्टियों के समय हॉबी क्लासेस जॉइन करना करवाना बुरी बात नहीं है।यह बच्चों और उनके माता-पिता के शौक पर भी निर्भर करता है। किंतु अपनी हॉबीज को नया रूप देने और अपने शौक को पूरा करने के लिए पैसे ही खर्च किए जाएं, यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं है। यदि माता-पिता चाहें तो वे अपने बच्चों के साथ खेल सकते हैं उनके साथ पार्क टहलने जा सकते हैं,झूले झूलने में ,भागने में, रेस लगाने में उनका साथ देकर और छोटे-छोटे गेम्स उनके साथ खेल कर उनकी हॉबीज को पूरा कर सकते हैं। किंतु शर्त यह है कि पेरेंट्स को भी मोबाइल से दूरी बनानी होगी, बच्चों के लिए समय निकालना होगा और उन्हें उनके स्तर पर जाकर समझना होगा क्योंकि बड़े लोग ही बच्चों के आदर्श होते हैं और अधिकतर बच्चे अपने बड़ों की ही नकल करते हैं इसलिए बड़ों को एक आदर्श स्थापित करना होगा ताकि वे अपने बच्चों से जो अपेक्षा करते हैं उन अपेक्षाओं पर वे स्वयं भी खरे उतर पाएं। बच्चों के साथ बच्चा बनने में कोई बुराई नहीं है,अपितु बच्चों को यह महसूस होना चाहिए कि उनके माता-पिता हर सुख दुख और जीवन के उतार-चढ़ाव में उनके साथ हैं ।अपने बच्चों के नजदीक जाएं ,उनके मन को टटोलें और कुछ उनकी मानें और कुछ अपनी मनवाएं।
बच्चों को यदि हॉबी क्लासेस भेजना भी है तो उन्हें छोड़कर आने और ले जाने की जिम्मेदारी ड्राइवर या मेड को न देकर अभिभावकों को स्वयं उठानी चाहिए ।बच्चों को ऐसे ही दूसरों के भरोसे या फ्री छोड़ देने से बच्चे हॉबी क्लासेस जाते तो जरूर हैं, किंतु बहुत जल्द उन्हें यह एहसास भी हो जाता है कि माता-पिता अपना पीछा छुड़ाने के लिए ही उन्हें घर से बाहर भेज रहे हैं।परिणाम स्वरूप हॉबी क्लासेज उनके लिए एक बोझ बन जाती हैं।
ऐसी स्थिति उत्पन्न न होने पाए इसका हम पेरेंट्स को विशेष ध्यान रखना होगा ।हमें उन्हें हॉबी क्लासेस उनकी रूचि के हिसाब से दिलवानी होगी न कि अपनी रूचि के हिसाब से।बच्चे का किस खेल में कितना इंटरेस्ट है उसके हिसाब से उन्हें उनकी हॉबी क्लासेस जॉइन करानी होंगी। यदि बच्चा हॉबी क्लास ज्वाइन नहीं करना चाहता है तो उनके साथ जोर जबरदस्ती भी नहीं करनी चाहिए। बच्चों को समझाया जरूर जा सकता है किंतु डांट डपट कर जबरदस्ती उन्हें किसी भी कार्य के लिए राजी करना किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है, इससे बच्चों पर गलत प्रभाव पड़ता है और धीरे-धीरे उनमें अवसाद बढ़ने लगता है।
छुट्टियों में हॉबी क्लासेस के अतिरिक्त और बहुत सी ऐसी गतिविधियां होती हैं जिनमें बच्चों को व्यस्त किया जा सकता है।हमारी ही तरह हमारे बच्चे भी छुट्टियों में फ्री रहना चाहते हैं,सुबह देर तक सोना चाहते हैं, टीवी मोबाइल देखना चाहते हैं,नाना नानी के घर जाना चाहते हैं ,शॉपिंग करना चाहते हैं, पर्यटक स्थल पर जाना चाहते हैं ,ट्रेकिंग करना चाहते हैं,नए नए स्थानों को एक्सप्लोर करना चाहते हैं,तो क्यों न बच्चों को उन्हीं के हिसाब से समझा जाए। जिन गुणों को विकसित करने के लिए हम बच्चों को घर से बाहर हॉबी क्लासेज के लिए, समर कैंप के लिए भेजना चाहते हैं ,वे गुण हम घर में भी उनके भीतर विकसित कर सकते हैं ,जैसे,कभी-कभी उनके दोस्तों को छोटी सी पार्टी के लिए अपने घर बुलाया जा सकता है या उन्हें उसके दोस्तों के घर भेजा जा सकता है ,सिनेमा हॉल में कोई मूवी दिखाई जा सकती है,अनाथाश्रम और वृद्धाश्रम ले जाकर जरूरतमंद और असहाय लोगों से बातचीत और मेल मिलाप करवाया जा सकता है,कभी अपने घर के पास के पार्क में बच्चों की छोटी मोटी प्रतियोगिताएं करवाई जा सकती हैं और इन प्रतियोगिताओं में जब बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता भी भाग लेते हैं तो बच्चों को बहुत अच्छा लगता है और इस प्रकार की गतिविधियों में फिर उनका ज्यादा मन लगता है,बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना का विकास होता है और हॉबी क्लासेस से अधिक उनका नैतिक,सामाजिक और भावनात्मक विकास इन गतिविधियों के माध्यम से संभव हो पाता है। कहा जाता है कि नून लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा, अर्थात बिना पैसे खर्च किए भी हम अपने बच्चों को उनकी रूचियों को विकसित करने में सहायता कर सकते हैं। बस जरूरत है थोड़ी सी समझदारी और अपने बच्चों को उनके स्तर पर जाकर समझने की।
— पिंकी सिंघल

पिंकी सिंघल

अध्यापिका शालीमार बाग दिल्ली