गीतिका/ग़ज़ल

दोस्त

यारों का मिलना ही होता है कुछ ऐसा
जैसे खोया बचपन फिर लौट आता है
निकल जाता है वक़्त बातों ही बातों में
यादों का खज़ाना बस भरता जाता है
चाहे जितने बरस बाद भी मिलें दोस्त
ये याराना फिर और भी गहरा जाता है
छिपती नहीं ये दिल की बातें दोस्तों में
इन आँखों को देख,सब समझ आता है
ख़ुदा ने भेजा ,कुछ रिश्ते नवाज़ कर
दोस्ती वो रिश्ता,इंसान ख़ुद बनाता है
जब उलझनें ले बैठे,खुद को कर अकेला
बिन दोस्त,कौन अपना नज़र आता है?
— आशीष शर्मा ‘अमृत ‘

आशीष शर्मा 'अमृत'

जयपुर, राजस्थान