लेख

जन जागरण

आलीशान होटल। टेबल पर विविध व्यंजन अपनी खुशबू से ललचाते। पर भूख हो तो कुछ भाये। संभ्रांत परिवार की ललनाएँ, महापुरुष।

हर व्यंजन में कुछ ना कुछ कमियाँ ढूँढ़ रहे थे, जैसे कोई खोजी हो।

बातचीत में औरों की बुराइयाँ। कुरेद रहे थे कमियाँ। खुद को तो कभी निहारा नहीं मन दर्पण में।
“कितनी गंदगी, कूड़ा करकट हैं बाहर। कूड़ेदान से कितनी बदबू आ रही थी। मिसेज चोपड़ा का इंतजार करना था।
ना बाबा, मैं नहीं रुक सकती वहां। पलभर भी नहीं।”
“मोना, सही कह रही हो तुम। कर्कश हॉर्न की आवाज से मेरे कान सुन्न हो जाते है।”
“ओफ्फहो! कितना ध्वनिप्रदूषण।” सुहानी ने संभाषण से जुड़ना चाहा।
” मैं तो परेशान हो गया हूँ मिट्टी, धुँए से। दम घुटता हैं मेरा।” अमोल भी बातचीत में शामिल हो गए।
सबकी ज्वेलरी, परिधान ध्यान से निहारती शोणिका बोल पड़ी,
“महंगाई आसमान छू रही हैं, और हर जगह ठगी, तोल-मोल किये बिना धनिया भी न खरीदो।”
बातों का सिलसिला जारी था। टेबल पर अन्न बिखरा पड़ा था। “झूठा न डाले” को चिढ़ाता हुआ।
कौन समझाए, कितने परिश्रम के बाद हलधर फसल खड़ी करता है।
पान की पीक से दीवार पर छींटे उड़ाते, चिप्स का पैकेट,पानी की प्लास्टिक बोतल चलती राह पर फेंकते,
अपने आप को महान पर्यावरण प्रेमी समझते महानुभव, पर्यावरण की शुचिता सहेजने की, सृष्टि श्रृंगार की केवल बात करते हैं।
‘पेड़ लगाओ’ का नारा जोर शोर से लगाते हैं।  हॉर्न बजा बजा कर परेशान करते हैं।
एक दूसरे की बुराइयां कर मन प्रदूषित करते हैं।
“हमें चाहिए, हम पर्यावरण मित्र बने, प्रकृति का मनोहर रूप सहेजे।”
पंडाल में पर्यावरण के प्रति हमारी प्रतिबद्धता, हमारा कर्तव्य,स्वच्छता अभियान के प्रति जागरूकता के लिए,
“जन जागरण” कार्यक्रम जोर शोर से चल रहा था।
बच्चें, विद्यार्थी, बीमार, बड़े बुजुर्ग, हमारे अपनों को परेशान करता शोर।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८