लघुकथा

लघुकथा – दादू यह मेरा फर्ज था

कनाडा के खूबसूरत शहर ऐडमिंटन के टामारौक महल्ले के 30 एवेन्यू के पास करीब 2 मिनट के रास्ते पर एक गोलाकार पार्क है। पार्क के बाहरी छोर के साथ-साथ गोलाकार सड़क। सड़क के साथ बाहर की ओर छोटे-छोटे सुंदर पेड़ और फूलों की लुभावनी क्यारियां। पार्क के मैदान में हरी-भरी गद्दीदार घास। साफ सफाई खूबसूरती की गवाही देती। वहां का हर नागरिक स्वच्छता का कद्रदान। मोहब्बत, अनुशासन, सवभाव, देश प्रेम-ये सब कुछ बच्चों को वहां के स्कूलों में सिखाया जाता है।
पार्क में हर वर्ग, धर्म के लोग सैर करते आते हैं, बच्चे, जवान, अधेड़, बुज़ुर्ग सब। गरमी की छुट्टियों में बच्चे, दादू दादियां, नानू नानियां वगैरह इस पार्क की शोभा बढ़ाते हैं। वहां रह रहे अलग अलग देशों के लोग बच्चों के साथ पार्क में सैर करते आते हैं। बुज़ुर्ग लोग छोटे बच्चों को बग्घियों में डालकर साफ हवा व मौसम का मजा लेते हैं। ये लोग अपने नौकरीपेशा बच्चों को सुख सुविधा देने के लिए इधर आते हैं और खुद भी सुविधाओं का आनंद उठाते हैं।
पार्क की बायीं तरफ मैदान के साथ हिंडोले, झूले, खेल, मनोरंजन के साजोसामान हैं। यहां बच्चे हंसी-ठिठोली करके खुशी महसूस करते हैं। साइकिल चलाना यहां बच्चों का मनपसंद खेल है।
मैं अपनी पोती हरआमीन, पोते करन तथा छोटे पोते सुकरात के साथ इस पार्क में सैर करता था। ये तीनों बच्चे अपनी छोटी-छोटी साइकिलों पर पार्क में मेरे साथ सैर करते थे, क्योंकि इनका ख्याल मुझे रखना पड़ता था। मैं इनके साथ साथ इनकी छोटी-छोटी नासमझ व कुछ समझ वाली बातों में मस्त हरी-भरी धरती पर सैर करता चलता, साथ-साथ हम और गपशप भी लगाते चलते जाते।
अचानक मेरे पोते करन, जो 7 वर्ष का था ने अपनी साइकिल एकदम नीचे गिरा दी और ग्राउंड के बीचों-बीच से दौड़ता हुआ पार चला गया। मैंने उसे बहुत आवाज दी, ‘तू कहां जा रहा है, साइकिल फेंक कर? कहीं गिर मत जाना।’ परंतु वह दौड़े जा रहा था। मैं दूर खड़ा सब कुछ देख रहा था। वह ग्राउंड के पार गया और कुछ समय बाद वापस आ गया।
मैंने आश्चर्य से उससे पूछा, ‘यार, तू अचानक साइकिल फेंककर कहां दौड़ गया था? अगर तू गिर जाता, जुझे चोट आ जाती तो?’
मेरे पोते ने मेरी ओर थोड़ी सी त्योरी चढ़ाकर, घूरकर, अपनी साइकिल उठाते हुए कहा, ‘दादूपापा, चुप। आपको नहीं पता था, ग्राउंड के पार मैंने देखा एक लड़के की साइकिल का टायर पंक्चर हो गया था। वह साइकिल घसीट (चला) नहीं पा रहा था। उसके लिए साइकिल ले जाना मुश्किल हो रहा था। मैंने उसको अचानक देख लिया था। मैं उसकी मदद के लिए गया था। मैं उसकी साइकिल पीछे से उठाकर उसको उसके घर तक छोड़ आया।’
मैंने पोते से कहा, ‘तुझे क्या जरूरत थी ऐसा करने की, उसकी मदद के लिए कोई और आ जाता। बेवकूफ, अगर तुझे चोट लग जाती तो फिर?’
तो उसने झटसे मुझे घूरते हुए कहा, ‘दादू, मैंने उसे देख लिया था कि उसको मदद की जरूरत है, इसलिए मैं उसकी मदद करने गया था। दादू आपको यह नहीं पता था, उसकी मदद करना मेरा फर्ज था।’
— बलविन्दर ‘बालम’

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409