कालजयी कबीर और बंकिम चन्द्र चैटर्जी को समर्पित अंतस् की अन्तर्राष्ट्रीय 47 वीं काव्य-गोष्ठी
कबिरा खड़ा बज़ार में, माँगे सबकी ख़ैर
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर……..घुमक्कड़ी भाषा के अलमस्त कालजयी कवि कबीर और वंदे मातरम–राष्ट्रगीत के रचयिता, 26 जून को जन्मे बंकिम चन्द्र चैटर्जी को समर्पित रही अंतस् की 47 वीं काव्य-गोष्ठी| 26 जून रात्रि आठ बजे से साढ़े दस बजे तक आयोजित इस अन्तर्राष्ट्रीय काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता की वरिष्ठ लेखक, कवि-गीतकार, सिने-इतिहासवेत्ता एवं फ़िल्मकार डॉ॰ राजीव श्रीवास्तव ने| अंतस् की गतिविधियों और बढ़ते साहित्यिक सरोकारों पर अपने विचार रखते हुए गोष्ठी में प्रस्तुति देने वाले प्रत्येक कवि-कवयित्री के वाचन पर प्रभावी टिप्पणी दी डॉ राजीव श्रीवास्तव ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में|
गोष्ठी का वैविध्यपूर्ण संयोजन, सुघड़ सञ्चालन प्रसिद्ध कवयित्री एवं अंतस्-अध्यक्ष डॉ पूनम माटिया ने किया| बतौर मुख्य अतिथि नागदा, उज्जैन से ‘वाह भई वाह’ फ़ेम के कैलाश सोनी ‘सार्थक’ ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ की। विशिष्ट अतिथि रहे जेद्दाह, सऊदी अरब से ग़ज़लगो अनीस अहमद, अम्बाला, हरियाणा से राष्ट्रीय चेतना के कवि डॉ जय प्रकाश गुप्त और श्रीनगर, जम्मू-कश्मीर से डॉ मुक्ति शर्मा|
संस्था की वरिष्ठ उपाध्यक्ष दिल्ली से अंशु जैन ने पहेली विधा के माध्यम से कबीर और श्री कृष्ण भगवान में समानता बताते हुए कहा कि दोनों को ही दो माँओं ने पाला|
जिनका जन्म हुआ था धानों के प्रदेश में/ लिखा जिन्होंने अपना राष्ट्रीय गीत पूरे मनोवेश में/ नहीं की- कभी चिंता धन- वैभव और सम्मान की/ डंडे की चोट पर, उज्ज्वल किया अपना नाम विदेश में… पहेली द्वारा बंकिम चन्द्र चैटर्जी को भी श्रद्धांजलि अर्पित की।
ग़ाज़ियाबाद की कवयित्री सोनम यादव द्वारा अत्यंत मनहर वाणी-वंदना प्रस्तुत की…
विधात्री मुझे ऐसी,अनुपम विधा दे।/ सुरों में समायी, वो रसमय सुधा दे।
जला दे जगत में, वही ज्ञान दीपक।/ हृदय तृप्त कर दे,वो मधुमय क्षुधा दे।
इसके अतिरिक्त विभिन्न विधाओं और रसों में काव्य की रसधार बही। कवियों-कवयित्रियों ने श्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ देकर अंतस् की 46वीं गोष्ठी को ऊंचाइयां प्रदान कीं।मंत्रमुग्थ काव्य रसिक श्रोताओं ने भरपूर आनंद की अनुभूति की|
डॉ राजीव श्रीवास्तव-ग़ाज़ियाबाद-गीत
चित्त के चिरइया से जियरा चुराया, देह से नेह सजन काहे लगाया,
प्रीत की थाह गोरी कबहु न पाया, रूप रंग धूप संग मनवा भरमाया
सोलह शृंगार बिना मन का द्वार नही खुले,/आँगन प्रवेश प्रथम चरण प्रेम जल से धुले.
साँकल चढ़ी है पिया माया की काया विकट,/ खोल मन कपाट सैंया तन का धन पराया
पूनम माटिया-दिल्ली-मुक्तक और ग़ज़ल
कहाँ तुलसी, कबीरा, सूर जैसे इस ज़माने में / न ही रसखान-ओ-मीरा नाम के मोती ख़ज़ाने में
ख़ुदा मेरे क़लम को भी अगर तौफ़ीक़ बख़्शे, तो/ इज़ाफ़त मैं भी कर जाऊँ अदब के इस फ़साने में
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बंद आँखों में कुछ आँसू रात मचले बेसबब/ नींद क्या आई बहाना ओढ़ कर सोते रहे
चाहते तो थे कि ‘पूनम’ आज शब रौशन करे/ रात काली थी अमावस ओढ़ कर सोते रहे
अनीस अहमद- जेद्दाह, सऊदी अरब-ग़ज़लें
हर एक मोड़ पे मुश्किल मे रहबरी के लिए / तुम्हारा इश्क़ ज़रूरी है जिंदगी के लिए
तुम्हें ही वक़्त की रफ़्तार को पकड़ना है/ ये वक़्त रुकता नहीं है कभी किसी के लिए
सोनम यादव-ग़ाज़ियाबाद-ग़ज़ल
मुश्किलों में इरादा बदल जाएगा/ लड़खड़ाता कदम यूं सँभल जाएगा
प्रीति की रहगुजर जिसने देखी नहीं/ दर्द मिलते ही अश्कों में ढल जाएगा
कैलाश सोनी सार्थक-उज्जैन-मुक्तक
नादानों के बीच तुम्हारा जज़्बा काम नहीं आता/ काम पड़ोसी अपने आते, कस्बा काम नहीं आता
पद वजूद धन दौलत पर यों अहम् दिखाना ठीक नहीं/ साथ कभी जब इनका छूटे ,रुतबा काम नहीं आता
डॉ जयप्रकाश गुप्त..अम्बाला-कविता
मुझको चाहे कहो कम्युनल या संकुचितमना कह लो/ पर मेरे संग हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्थान की जय बोलो
डीपी सिंह-ग़ाज़ियाबाद -मुक्तक
कोई तो बेचता है विष मुहब्बत की दुकानों में/ किसी के मुफ़्त के वा‘दे हमें चुभते लगानों में
जिसे दरकार थी इक छत की, केवल सर छुपाने को/ रहे आम आदमी अब वो करोड़ों के मकानों में
डॉ मुक्ति शर्मा –श्रीनगर-कविता
फिर आई बहार वादी में/ गुल गुल मुस्कुराया वादी में।
झर झर करते झरने बह उठे/ ऊंचे ऊंचे पहाड़ फिर महक उठे।
फिर फैली अमन की हवा चारों और डल झील, पहलगाम, गुलमर्ग, यूस्मार्ग सौरभ फैला उठे।
नीलम वर्मा-दिल्ली-ग़ज़ल
दूर देश से आएँ जब हवाएँ सावन की/ झूमते हैं गाते हैं गोआ के हसीं जंगल
कुछ परिंदे परदेसी डालते हैं डेरा जब/ बाहों में झुलाते हैं गोआ के हसीं जंगल
कृष्ण बिहारी शर्मा-ग़ाज़ियाबाद-गीत
निर्मोही मनिहार न आया/ सूनी होती जाय कलाई /टूट रही सतरंगी चूड़ी/ और मिलन रजनी नियर आई
कैसे झट चौखट को लांघू/ मैं कल-परसों की दुल्हनिया/कैसे पट घूँघट का खोलूँ/ मैं तो लजवंती चंदनिया
सुनीता राजीव- दिल्ली-ग़ज़ल
हर एक शख़्स सलीब अपना ख़ुद उठा के चले/ जो दिल में दर्द हो तो भी वो मुस्कुराके चले
नहीं जो मिलता अपनों से भी सहारा कोई/ वजूद अपना संभाले औ’ सर उठा के चले
डॉ उषा अग्रवाल-छत्तरपुर, मध्यप्रदेश-ग़ज़ल
क्यूँ जाएं उन को छोड़ के गैरों के द्वार पर / जब सब हमें नसीब है अपनों के द्वार पर
सुशीला श्रीवास्तव-दिल्ली-ग़ज़ल
मज़हबों की मैं सियासत, किस तरह कैसे करुँ/ है नहीं मुझमें लियाक़त, किस तरह कैसे करुँ
सुनीता अग्रवाल-दिल्ली –कबीर के दोहे, वन्देमातरम और कविता
मेरे दर पर आकर तुम चले जाओगे/ कब ऐसा सोचा था
तुम बिन ये ज़िन्दगी आहें भरेगी/ कब ऐसा सोचा था
डॉ दिनेश कुमार शर्मा के उत्साहवर्धक उद्बोधन ने अंतस् के कार्यों की सराहना कर अपना दायित्व और बेहतर तरीके से निभाने के लिए प्रेरित किया। अंत में सभी को औपचारिक धन्यवाद संस्था के कार्यकारी महासचिव देवेन्द्र प्रसाद सिंह ने ज्ञापित किया| गोष्ठी का विधिवत समापन वन्देमातरम सामूहिक गान से हुआ|
अंतस् की यह गोष्ठी फ़ेसबुक पर लाइव रही नरेश माटिया, तरंग माटिया के प्रयासों से और इस तरह कई काव्य रसिक मित्र इससे जुड़कर काव्य पाठ सुन पाए| अंतस् के यू ट्यूब चैनल – Antas.mail पर भी यह विडियो उपलब्ध है|