गीतिका/ग़ज़ल

गज़ल

खून की अक्षर जननी से इतिहास लिखाए आज़ादी।

मानवता को जीवन के फिर अर्थ सिखाए आज़ादी।

               हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई सबकी कुर्बानी में ही,

               भारत मां के माथे ऊपर मुकुट सजाए आज़ादी।

इकजुटता में बरकत है तो सब धर्मों में प्यार मिले,

ऊँचे भवनों की टीसी झण्डा लहराए आज़ादी।

               आज़ादी के पथ प्रदर्शकों ने खून अहूती डाली

               तब भारत का बच्चा-बच्चा सुखद मनाए आज़ादी।

मस्तिष्क में परिवर्तन हो तो आधुनिकता अम्बर छूती,

चांद की धरती ऊपर बंदे को पहुंचाए आज़ादी।

               तन मन  मस्तिष्क घर-वाहर के जीवन में ना हो तो,

               दर-दर ठोकर मारे, दर-दर और रूलाए आज़ादी।

सृजनहारे, शक्ति-पुरूषों ने ही इस को चूमा है,

निर्वलता नाकारात्मिकता को तड़पाए आज़ादी।

               इस की संप्रभुता के लिए कुर्बानी, ईमान जरूरी,

               मानवता को उँगली लगा कर फिर समझाए आज़ादी।

परिश्रम में पसीना अपनी परिभाषा अगर बताता है,

सृजन के कर्मठ को फिर झोली में पाए आज़ादी।

               सूरज को अम्बर में लेकर तड़क सवेरा आता है,

               अँधेरे को चकनाचूर करे फिर आए आज़ादी।

भिन्न-भिन्न सुन्दर फूलों की खुशबू है एक गुलदस्ते में,

तब ही भारत की आत्म-शक्ति कहलाए आज़ादी।

               राजा हो या निर्धन हो या कोई साधु संत ही हो,

               सबको एक तराजू में इन्साफ दिलाए आज़ादी।

निर्धन की झोंपड़ में भी सूरज चांद सितारे हों तो,

फिर बैकुण्ठ के रूतवे जैसी ही कहलाए आज़ादी।

               हमदर्दी के आंगण में फिर मानवता को ज्योति जगे,

               आंधी, तूफां में गिरते हुए वृक्ष उठाए आज़ादी।

मारूस्थल में सागर देवे अंधेरे को दीप्ति दे

बारिश बीच बहारें देकर फूल खिलाए आज़ादी।

’बालम‘ मेरा प्यारा भारत जगमग-जगमग उज्जवल रहे,

जैसे मन्दिर ज्योति जगे, उजाला पाए आज़ादी।

— बलविन्दर बालम

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409