ग़ज़ल
रोग तबियत में पुराना आ गया,
लोग ये समझे दीवाना आ गया।
याद तन्हाई में आई जब कभी,
इन लबों को गीत गाना आ गया।
हार कर के यार से अपने हमें,
मुस्कुराना, जीत जाना आ गया।
इश्क़ में तेरे ओ मेरे दरमियाँ,
बेसबब जालिम ज़माना आ गया।
आप पीकर लड़खडाओ पर मुझे,
बिन पिये ही लड़खडाना आ गया।
कुछ दफ़ा पढकर तहत में ये ग़ज़ल,
ठीक से अब गुनगुनाना आ गया।
एक पल रुककर, ठहरकर देख ले,
‘जय’ तेरा असली ठिकाना आ गया।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’