भाषा-साहित्य

चलो.. दुनिया को देखें

‘भाषा’ मानव जीवन में अनोखा साधन है। जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों को, भावनाओं को दूसरों तक पहुँचा सकते हैं और स्वीकार कर सकते हैं। भाषा के बिना मनुष्य गूँगे और पशु समान होंगे, समाज की कल्पना भी हम नहीं कर सकते। इसके के दो रूप हैं बोलचाल का और लिखित।
भाषा एक दूसरे को मिलाती है। समाज की एकता में इसकी अमूल्य देन है। मानव समाज में हर प्रदेश व देश की अपनी भाषा होती है और वह अपना प्रदेश व देश की गरिमा का सूचक है।
संसार में भारत जैसा और कोई देश ऐसा नहीं है जहाँ विभिन्न भाषा, आचार, व्यवहार, धर्म, जाति आदि विभिन्नताएँ हैं। यह भारत की गरिमा का परिचायक है कि यहाँ के लोग अपनी विभिन्नता को भूलकर एक दूसरे को स्वीकारते हैं और मिलजुलकर रहते हैं। लेकिन पूर्ण रूप से हर कोने में इसी एकता को और लौकिकता को बनाये रखना और हरेक इंसान के मान-मर्यादा को बचाना हमारा कर्तव्य है।
इतिहास हमारा आईना है और हमारे लिए एक चेतना भी है। इसलिए कि इसमें अनुभव का सार है, आगामी भविष्य के लिए बहुत बड़ा सहायक है। यह तो सही है कि भारत की सभी भाषाएँ राष्ट्र भाषाएँ हैं। हरेक भाषा का अपनी अलग विशेषता व गरिमा होती है। यहाँ सात सौ से अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। बाईस भाषाओं को संविधान की स्वीकृति मिली है और राष्ट्रभाषा की दर्जा मिल चुकी है। लेकिन देश की गरिमा अपनी एक भाषा से हो सकती है। इसलिए एक भाषा को अधिकारिक दर्जा मिलनी चाहिए जो अधिक लोगों के द्वारा बोली, समझी जाती है। इस दिशा में हम देखें तो स्पष्ट है कि हिंदी ही एक मात्र भाषा है जो अधिक लोगों में बोली जाती है। इसमें एक हजार से अधिक वर्षों का साहित्य है। यह भी हम भूलना नहीं चाहिए कि यह स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को मिलाने का एक साधन बनी।
भारत के हर नागरिक का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपनी मातृभाषा के साथ हिंदी को भी सीखें। जिनकी मातृभाषा हिंदी है वे भारत की अन्य भाषा जरूर सीख लें। अंग्रेजी का भी अपने जीवन में एक अलग महत्व है। इसको भी साथ ले चलना जरूरी है। इसलिए जान बूझकर हमारी प्राथमिक पढ़ाई के स्तर पर त्रिभाषा सूत्र को अमल में लाया गया है। लेकिन अब यह खतरे में हैं। पाठशाला की पढ़ाई पाँच विषयों का हो गयी है। दो भाषाएँ और तीन भाषेतर अंश हैं। इसमें अंग्रेजी अनिवार्य रूप से पढ़ना पड़ता है। त्रिभाषा सूत्र हमारी पढ़ाई से गायब हो गया है। परिणामतः इसका नुकसान मातृभाषा पड़ता है और हिंदी पर। अहिंदी प्रांतों में हिंदी पर इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा है। आज हिंदी साधारण जनता की भाषा हो गयी है। अभी – अभी साधारण जनता में एक दूसरे के प्रति समझौता और साधारणीकरण बन रहा है। ऐसी हालात में त्रिभाषा सूत्र की उपेक्षा साधारण जनता के लिए आघात के समान है। अहिंदी प्रांत के संसद सदस्य गण संसद के हिंदी भाषी के अन्य सदस्य गण के साथ मित्रवत व्यवहार के लिए, उनके भाषणों को समझने और अपनी वाणी देने में हिंदी का सहारा लेना जरूरी है। अधिकतर संसद सदस्य हिंदी भाषी के होते हैं यह उनकी अपनी मातृभाषा है या अपनी मातृभाषा का हिंदी से निकटतम संपर्क है। समाज में अधिक लोगों के द्वारा मान्य बात ही शासन की सत्ता हासिल करेगी। हिंदी भाषा से अलग व तिरस्कार करने से अहिंदी प्रांत के लोगों के लिए ही नुकसान होगा। इसलिए अहिंदी प्रांत के लोगों के लिए कोई विकल्प नहीं है, हिंदी को साथ लेकर चलना अत्यंत आवश्यक है। इसमें प्रौढ़ता हो या प्रांजलता अपने आप धीरे-धीरे आ जाएगी। इसलिए हमारी पढ़ाई में भी हिंदी का स्थान कायम हों। त्रिभाषा सूत्र अमल में लाना जरूरी है। ध्यान देने की बात यह है कि हिंदी की माँग दिन ब दिन विदेशों में बढ़ती जा रही है, वहाँ हिंदी का विभाग खुलते जा रहे हैं लेकिन हमारे यहाँ हिंदी की उपेक्षा, तिरस्कार चिंतनीय है।

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।