सामाजिक

जीते जी पानी नहीं मरे पर खीर

       यूँ तो यह कहावत है, लेकिन मन की पीड़ा और आज के बदलते परिवेश में यथार्थ लोकोक्ति और हम सबके लिए आइना है । अपवादों को छोड़कर आज लगभग हर परिवार में यही देखने में आ रहा है। अपने जिन बुजुर्गों की मेहनत, साधना और प्रार्थना की बदौलत हम इतराते हैं, सुख सुविधाओं के लायक बन सके हैं, कुछ करने लायक हो गये हैं, हमारे माता पिता और बड़े अब बुजुर्ग हो चुके हैं जब उन्हें हमारी जरूरत है, हमारे कर्तव्य निभाने का समय आ गया है तब हम जो कर रहे हैं, उससे किसी और को शर्म भले आ जाए, हमें तो बिल्कुल नहीं आती। हमारे पास उनके लिए समय नहीं है, हमें उनकी कितनी परकवाह है ,यह हमारे व्यवहार से पता चलता है,जब हम उनकी उपेक्षा करने से बाज नहीं आते, उनकी बात नहीं सुनते,। प्रेम के दो शब्द नहीं बोलते, उनके मन के भाव, उनकी इच्छाओं, उनकी परेशानी को सुनना, समझना महसूस नहीं करते, उनको थोड़ा सा भी समय नहीं देते,उनकी आवश्यकताओं के प्रति गंभीर नहीं होते, एक गिलास पानी और समय पर भोजन देने, इलाज और उनकी जरूरत पूरी करने के प्रति हमारा रवैया असंवेदनशील होता है, वे उम्मीद की टकटकी लगाए देखते रहते हैं और हम उनके सामने से ही उन्हें नजर अंदाज कर आते जाते रहते हैं, बीबी,पति बच्चों के साथ हंसी ठिठोली करते हैं, तब हमारे बुजुर्ग जीने की नहीं अपनी मौत की प्रार्थना ईश्वर से करते हैं। और तो और आज की पीढ़ी अपने बच्चों को उनके दादा दादी नाना नानी और बुजुर्गों से दूर रखकर उनकी शेष जिंदगी को और दुरुह बना रहे हैं। क्योंकि हमें लगता है कि हमारा बेटा पुरानी विचार धारा और दकियानूसी बातें सीखेगा, बीमार हो जायेगा, आज की कान्वेंटी शिक्षा को समायोजित नहीं कर पायेगा। 

     और तो और आज के परिवेश में नुकसान , छुट्टी न मिलने के बहाने अंतिम संस्कार में भी शामिल होने को लेकर भी लापरवाह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। ऐसे में अपनी औलाद होते हुए लावारिस की तरह दाह संस्कार रिश्ते दार, पड़ोसी या मित्र और उनके परिवार के लोग करने को विवश हो रहे हैं। ऐसे में  पितृपक्ष में तर्पण, पिंडदान, श्राद्ध आदि आडंबर करते हुए भोज, विविध व्यंजन बनाकर खिलाना, गाय ब्राह्मण कौआ, कुत्ता चींटी को खिलाना, दान दक्षिणा देना आदि कार्यों से अपने धन दौलत का दिखावा करना आम होता जा रहा है। जीवित रहते हुए जिनको हमने तरह तरह से तरसा दिया और उनके मरने पर खीर पूड़ी मेवा मिष्ठान फल फूल दिन दक्षिणा श्राद्ध का दिखावा बड़ा हास्यास्पद लगता है। आखिर क्या औचित्य है? क्या महत्व है इसका? दिखावा आडंबर करने के सिवा कुछ भी नहीं! इसका न तो कोई लाभ है और न ही सार्थकता। बल्कि ऐसा करके शायद हम मृत आत्मा का उपहास ही कर रहे हैं और शरीर छोड़ने के बाद भी उन्हें सूकून से नहीं रहने देना चाहते।      

अब उनके नाम पर ढोल पीटने, दिखावा करके  श्रवण कुमार बनने से क्या फायदा? ये हमारी आपकी आत्मतुष्टि के लिए भी उचित नहीं है, बल्कि ढकोसला है, दंभ है, झूठ मूठ का लगाव है, जिसे हम दुनिया को दिखाते प्रतीत होते हैं।

       वास्तव में “जीते जी पानी नहीं मरे पर खीर” का असली भावार्थ यही है और कुछ नहीं, जो हम करते हैं, खुद ही गुमराह होते हैं और अपनी पीठ थपथपा कर बहुत खुश होते हैं। क्योंकि हम अपने साथ साथ पूर्वजों की भी आंखों में धूल झोंक कर उनके प्रति अपनी असंवेदनशीलता का उत्कृष्ट उदाहरण पेश कर रहे हैं। 

*सुधीर श्रीवास्तव

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