गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

यह हवा कैसी चली है लोग कैसे हो गये हैं

विष भरे परिवेश में सब तो विषैले हो गये हैं।

आइने से पूछते हो बेखबर चेहरों का हाल,

आइना सच ही बताता लोग कैसे हो गये हैं।

आदमी से आदमी का वक्त अब कटता कहां,

भर गया है छल-कपट ये लोग कैसे हो गये हैं।

भीड़ में दुनिया की आखिर आदमीयत खो गई,

खो चुकी इंसानियत के सर विषैले हो गये हैं।

रास्तों की इस क़दर पहचान तुम करना भला,

रास्ते बदले कि मन सबके विषैले हो गये हैं।

पत्थरों में जाने क्या है देवता बन कर खड़े,

पूंजते उन पत्थरों को मन कसैले हो गये हैं।

— वाई.वेद प्रकाश

वाई. वेद प्रकाश

द्वारा विद्या रमण फाउण्डेशन 121, शंकर नगर,मुराई बाग,डलमऊ, रायबरेली उत्तर प्रदेश 229207 M-9670040890