कविता

मुक्ति 

मुक्ति 

सम्भव नहीं 

वर्तमान से 

अतीत से 

और

भविष्य से भी। 

बन्धनों में रहकर भी 

मुक्त रहना 

साधना है। 

अच्छे वस्त्र आभूषण 

अथवा माला कंठी 

धारण कर भी 

उसमें लिप्त न होना 

मुक्ति है। 

मुक्त होने के लिए 

बनना पड़ता है 

अपरिग्रही 

राजा जनक सा। 

मान अपमान 

यश अपयश 

पद प्रतिष्ठा 

सबको तज कर 

स्व को मिटाना पड़ता है। 

दायित्व का निर्वहन 

बिना आशक्त हुए 

मुक्ति है। 

मुक्ति 

आखिर किससे 

और क्यों? 

विचारना 

कहीं पलायन तो नहीं 

सामाजिक दायित्वों से 

अथवा 

किसी कोने में 

 जन्मता दम्भ 

स्वयं को श्रेष्ठ 

या विशेष 

प्रकट करने का 

हाँ विचारना। 

एक छटपटाहट 

जो मचल रही है 

उछल रही है 

व्याकुल है 

कुछ अलग जताने को 

आतुर है। 

अन्तश में विराजमान 

सुप्त कुंठा सी 

विषैली नागिन 

समझना उसकी भाषा 

और तब सोचना 

मुक्ति 

किसे 

किससे 

और क्यों? 

कौन मुक्त हो सका 

महावीर 

बुद्ध 

राम 

कृष्ण 

ऋषि मुनि 

सन्यासी 

नहीं 

शायद कोई नही 

महलों से निर्वासन 

सिंहासन का त्याग 

पत्नी पुत्र का मोह 

यह सब तो 

आम जन भी करते हैं 

परन्तु 

मुक्त कहाँ?

 वन कन्दराओं में सिमट जाना 

पलायन है 

मुक्ति नहीं। 

लिप्त रहकर 

अलिप्त रहना 

कमल सा बन 

पानी में रहना 

मुक्ति का प्रथम चरण है 

आजमाना कभी 

और मुक्त हो जाना 

कुछ हद तक 

सम्पूर्ण नहीं 

अभी बाकी है 

एक चाह 

कमल होने की 

उससे भी 

मुक्त होना होगा। 

—  डॉ अ कीर्ति वर्द्धन