ग़ज़ल
मिट्टी के इस लगाव ने छोड़ा नहीं अभी,
आकर शहर भी गांव ने छोड़ा नहीं अभी।
मंज़िल की राह में न कभी आबले हुए,
रस्तों, ज़मीं को पांव ने छोड़ा नहीं अभी।
अच्छे दिनों की आस में बैठें हैं सब मगर,
बढ़ते हुए इस भाव ने छोड़ा नहीं अभी।
पढ़-लिख के सूट-बूट में शहरी हुऐ बहुत,
पर गांव के स्वभाव ने छोड़ा नहीं अभी।
पंखे भी खूब छत पे लगाकर रखें हैं पर,
पीपल की घनी छांव ने छोड़ा नहीं अभी।
सुर में भले ही तुम ये ग़ज़ल पढ रहे हो ‘जय’,
कव्वों की कांव – कांव ने छोड़ा नहीं अभी।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’