स्वास्थ्य

भारत के नागरिकों के स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता

मैं, डॉ. मनोहर लाल भण्डारी, एम.बी.बी.एस., एम.डी., फिजियोलॉजी, सेवानिवृत्त चिकित्सा शिक्षक, शासकीय मेडिकल कॉलेज, इन्दौर, मध्य प्रदेश, माननीय महानुभावों से करबद्ध निवेदन करता हूँ कि कैंसर, मधुमेह उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, आर्थराइटिस जैसे रोगों ने बालकों और युवाओं तक को तेजी से अपना शिकार बनाना आरम्भ कर दिया है, यह स्थिति अत्यधिक चिन्तनीय है, इसके साथ ही अन्य जीवनशैलीजन्य रोगों का भी प्रकोप बढ़ा है। ऐसी स्थितियों के चलते देश के साथ-साथ नागरिकों की आर्थिक स्थिति तथा पारिवारिक सुखों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। देश को भी करोड़ों कार्यदिवसों की हानि उठाना पड़ती है। इन स्थितियों को ध्यान में रखते हुए शिवजी की प्रेरणा से देश के सकल हित में निम्नलिखित व्यावहारिक सुझाव देने को विवश हुआ हूँ:-
• मेडिकल कॉलेजों में आयुर्वेदीय दिनचर्या तथा वैदिक औषधिविहीन चिकित्साओं को कम्युनिटी मेडिसिन के तहत पढ़ाई जाए: आयुर्वेद वर्णित दिनचर्या के अनेक निर्देशों, यथा जैविक घड़ी, ब्रह्ममुहूर्त में जागना, प्रातः ताम्बे के जल का सेवन, भारतीय शौच पद्धति, नीम-बबूल और मंजन से दातुन, योगासन, प्राणायाम, ध्यान, ढीले वस्त्र ठण्डे पानी से स्नान, ईश्वर पर आस्था, प्रार्थना, संकल्प, मालिश, भोजन के करने सभी निर्देश, यथा बैठकर, चबा-चबा कर, प्रसन्नतापूर्वक उँगलियों से भोजन, उपवास, उपवास, रात्रिपूर्व भोजन, शयन, आदि पर विदेशों में सौ से भी कहीं अधिक वैज्ञानिक शोध हो चुके हैं। आश्वासन चिकित्सा, मन्त्र चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा, सूर्यकिरण चिकित्सा, प्रार्थना चिकित्सा, आभार चिकित्सा, क्षमा चिकित्सा, आस्था चिकित्सा, वनस्नान चिकित्सा, अग्निहोत्र चिकित्सा, गंध चिकित्सा, जल चिकित्सा आदि लगभग एक दर्जन से अधिक औषधिविहीन, प्रभावी और निरापद उपचार पद्धतियों पर भी विदेशों में पर्याप्त शोध हो चुके हैं। इनको को भी मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाया जाना चाहिए। साढ़े पांच वर्षों में मात्र साठ घन्टों के कालखण्ड में इनका भलीभांति परिचय तथा समायोजन करवाया जा सकता है, तदर्थ पाठ्यक्रम के निर्माण हेतु मैं नि:स्वार्थ रूप से तत्पर हूँ। प्रथम वर्ष में कम्युनिटी मेडिसिन के साठ घण्टों को तदर्थ उपयोग में लाया जा सकता है।
• मनोविज्ञान को प्रथम वर्ष में पढ़ाया जाना अनिवार्य किया जाए: वर्तमान में मनोदैहिक रोगों का प्रतिशत 70 से अधिक है। अतएव एम.बी.बी.एस. के पाठ्यक्रम में मानव मनोविज्ञान जैसे विषय का समावेश अत्यधिक आवश्यक है। इसे प्रथम वर्ष में ही एक मुख्य विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए, विभिन्न भारतीय धर्म ग्रंथों में मनोविज्ञान पर बहुत समृद्ध सामग्री उपलब्ध है। मनोविज्ञान का समायोजन करने के लिए फिजियोलॉजी और बायोकेमिस्ट्री में पढ़ाई जा रही अनावश्यक सामग्री को कुछ सीमा तक कम किया जा सकता है। इस विषय की गहनता को देखते हुए इसे दूसरे, तीसरे और अन्तिम वर्ष में भी आवश्यकतानुसार पढ़ाया जाना चाहिए।
• वृद्धों की स्वास्थ्य समस्याओं को प्राथमिकता देना समय की आवश्यकता है: एक अनुमान के अनुसार भारत में वृद्धों की संख्या लगभग 14 करोड़ है और यह निरन्तर बढ़ती ही जाना है। उनकी अशक्तता, मानसिकता, अकेलापन, वृद्धावस्था की विविध आयामी स्वास्थ्य समस्याएं अन्यों की अपेक्षा पृथक होती हैं, अतएव एम.बी.बी.एस. के पाठ्यक्रम में जिरियाट्रिक विषय का प्रमुखता से समावेश किया जाना चाहिए।
• कोरोना जैसी महामारी में चिकित्सा विद्यार्थियों की महती भूमिका सुनिश्चित की जाना चाहिए: चूँकि मेडिकल कॉलेज, इन्दौर की कोविड डेथ एनालिसिस टीम के तहत मैंने लगभग आठ सौ मृतकों के परिजनों से विधिवत चर्चा कर कॉलेज प्रशासन को प्रत्येक की संक्षेपिका तैयार कर प्रेषित की थी, इसलिए मुझे थोड़ा-सा ज्ञान और भान हुआ है कि किसी भी महामारी अथवा आपदा के समय चिकित्सा विद्यार्थियों की महती भूमिका हो सकती है, विशेष रूप से जनजागरूकता, भर्ती रोगियों का मनोबल बढ़ाने, चिकित्सकों और पैरामेडिकल स्टाफ की सीमित संख्या को ध्यान में रखते हुए उनके सक्रिय और दक्ष सहयोगी के रूप में सहायता करने आदि में वे जीवन रक्षकों की भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। जबकि कोविड के समय चिकित्सा विद्यार्थियों को लम्बे समय के लिए छुट्टी दे दी गई थी। उन्हें 15-20 घण्टों में आपदा प्रबन्धन के क्रेश कोर्स का प्रशिक्षण प्रथम वर्ष में ही दिया जाना चाहिते।
• कहीं टूथपेस्ट्स तो भारत में बढ़ते उच्च रक्तचाप और मधुमेह के प्रकरणों के लिए उत्तरदायी नहीं हैं, गहन शोध आवश्यक: बाजारों में उपलब्ध टूथपेस्ट में कीटाणुनाशक रसायन होते हैं, जैसा कि उनके विषय में दावा किया जाता हैं। एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार वे रसायन हमारे मुंह के 99% से ज्यादा सूक्ष्मजीवों तथा लार और मुंह के मित्र जीवाणुओं को भी मार देते हैं, जो हमारे शरीर के नाइट्रेट (NO3-) को नाइट्राइट (NO2-) और बाद में नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) में बदलने में सहायता करते हैं। नाइट्रिक ऑक्साइड की कमी से रक्तचाप बढ़ सकता है और प्रीडायबिटिक लक्षण आ सकते हैं। बबूल और नीम की दातून को लेकर एक क्लिनिकल स्टडी ‘जर्नल ऑफ क्लिनिकल डायग्नोसिस एंड रिसर्च’ में छपी और बताया गया कि स्ट्रेप्टोकोकस म्यूटेंस की वृद्धि रोकने में ये दोनों अत्यधिक प्रभावी हैं। दांतों पर टूथपेस्ट, आयुर्वेदवर्णित मंजन और नीम-बबूल की टहनी के तुलनात्मक प्रभावों पर शोध किए जाना चाहिए। मेनचेस्टर यूनिवर्सिटी के एक शोध के अनुसार हमारे टूथब्रश में औसतन 100 लाख जीवाणु होते हैं, जिनमें स्टेफिलोकोकल, स्ट्रेप्टोकोकस, ई.कोलाई तथा केंडिडा जैसे जानलेवा रोगाणु भी शामिल हैं l यह भी शोध का विषय है।
• माइक्रोवेव ओवन कहीं राष्ट्रीय शर्म के रूप में कुख्यात कुपोषण को महामारी न बना डालें, उसके पहले कदम उठाना आवश्यक है : इस यंत्र से सिगड़ी या चूल्हे अथवा अलाव की तरह गर्मी नहीं निकलती बल्कि इससे निकलने वाले इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन से खाद्य पदार्थों के भीतर के पानी के अणुओं में महाघर्षण के कारण जो विघटन होता है, उससे गर्मी उत्पन्न होती है, जिसके कारण पदार्थ गर्म होते हैं, यानी खाद्य पदार्थ स्वयं की गर्मी से स्वयं को गर्मी देते हैं। यह महाघर्षण आसपास के अणुओं को भी विघटित और विद्रूप कर देता है, जिसे विज्ञान की भाषा में “स्ट्रक्चरल आइसोमेरिज्म” कहा जाता है। इससे खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता बहुत अधिक प्रभावित होती है। इस पर भी शोध अविलम्ब करवाया जाना चाहिए, क्योंकि वर्तमान में रेस्टोरेंट्स, होटलों और घरों में इसका उपयोग बहुलता से होने लगा है, वैसे भी पूर्व प्रधानमंत्रीजी ने कुपोषण की व्यापकता को देखते हुए उसे राष्ट्रीय शर्म कहा था। इस पर बहुभाषाओं में स्पष्ट और बड़े अक्षरों में वैधानिक चेतावनी लिखी जाए और सरकारी एडवाइजरी जारी की जाना चाहिए।
• रिफाइंड तेल की घातकता की अनदेखी कब तक: इसकी घातकता के प्रति समाचार पत्र-पत्रिकाएं और सोश्यल मीडिया के स्वास्थ्य सचेतक लोग सजग हैं, परन्तु जिन्हें होना चाहिए, वे नहीं हैं। रिफाइंड तेल की शेल्फ लाइफ बढाने की दृष्टि से उसको गंधहीन, रंगहीन और स्वादहीन बनाने के लिए विभिन्न रसायन मिलाकर अत्यधिक तापमान पर गर्म किया जाता है। तेलों में जो गंध होती है, वह चार-पांच तरह के नैसर्गिक प्रोटीन के कारण होती है और जो चिपचिपाहट होती है, वह फेटी एसिड्स के कारण होती है, रिफाइन करने में तेल में विद्यमान वसा और प्रोटीन नष्ट हो जाते हैं और रोगकारी रसायन उत्पन्न हो जाते हैं। जितना गर्म किया जाता है, (225 से 250 डिग्री सेंटीग्रेड) उस तापमान पर विटामिन्स ख़त्म हो जाते हैं। विटामिन्स, फेट और प्रोटीन के बिना रिफाइन्ड तेल तेल नहीं रहता है, अपितु घातक हो जाता है। ऐसे तेल को खाने से कई प्रकार की बीमारियाँ होती हैं, घुटने दुखना, कमर दुखना, हड्डियों में दर्द, ये तो छोटी बीमारियाँ हैं, सबसे खतरनाक बीमारी है, हृदयघात, पैरालिसिस, ब्रेन का डैमेज हो जाना, आदि, आदि | इसलिए अविलम्ब शोध करवाया जाना चाहिए और इस पर भी वैधानिक चेतावनी प्रकाशित की जाए।
• आरो वाटर पर गहन शोध अविलम्ब किए जाएं: हमारा रक्त क्षारीय है और आरो वाटर अम्लीय है, जबकि मटके अथवा ताम्बे के पात्र में रखा जल और नीम्बू पानी क्षारीय होते हैं, जो शरीर के लिए बहुत ही अनुकूल होता है। हमारी कोशिकाओं की अम्लीयता बढ़ने पर कैंसर होता है, इस अनुसंधान के कारण डॉ. ओट्टो वारबर्ग (Dr. Otto Warburg) को 1931 का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। The water is demineralized, causes gastrointestinal problems, bone density issues, joint conditions, and cardiovascular disease. The water is usually acidic range of 5.0 to 6.0 pH. Acidosis in the body is considered an underlying cause of most degenerative diseases, low mineral water increased diuresis (the production of urine by the kidneys) 20% on average and markedly increased the elimination of sodium, potassium, chloride, calcium and magnesium ions from the body. World Health Organization: After analyzing hundreds of scientific studies concerning demineralized or Reverse Osmosis Water, the World Health Organization released a report stating that such water “has a definite adverse influence on the animal and human organism.” अतएव पूरे देश में आरो पानी के उपकरणों पर अविलम्ब प्रतिबंध लगाया जाए अथवा नागरिकों को स्पष्ट, बहुभाषाओं और बड़े अक्षरों में वैधानिक चेतावनी दी जाए कि इस पानी का सेवन करने से रोग हो सकते हैं।
• एड्स जैसे विषाणुजनित गुप्त और अन्य रोगों से बचाव को देखते हुए भारतीय सरकारी कण्डोम की उपयोगिता और असफलता की दर पर शोध हो: चिकित्सा विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है कि गर्भाधान की दृष्टि से कण्डोम की असफलता की दर लगभग 13% है, यह आंकड़ा भारतीय कण्डोम के सन्दर्भ में नहीं है क्योंकि भारत में उपलब्ध कण्डोम और देश के सरकारी अस्पतालों द्वारा दिए जाने वाले कण्डोम पर कोई शोध हुआ ही नहीं है, जब मैंने अपने एक मित्र के माध्यम से आरटीआई के तहत जानकारी चाही थी तो नाको ने किसी विदेशी संस्था बॉडी डॉट कॉम का 2003 का एक आलेख भेज दिया था कि कण्डोम की असफलता की दर 10% है। वास्तव में नाको कदाचित अपने जन्म [1992] से ही “एड्स का विरोध सिर्फ एक निरोध” का प्रचार कर रहा है तो नाको ने इस उद्घोष को सार्वजनिक किए जाने के पहले भारतीय कण्डोम की असफलता की दर पर शोध क्यों नहीं करवाया? यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि शुक्राणु की तुलना में वायरस लगभग 650 गुना छोटा होता है और मेयो क्लिनिक, रोचेस्टर मिनेसोटा, अमेरिका के अनुसार यदि शुक्राणुओं की संख्या 3.9 करोड़ से कम हो तो गर्भाधान की सम्भावना बहुत कम होती है। निषेचन हेतु अंडे तक पहुँचने के लिए शुक्राणुओं को लगभग 15 सेंटीमीटर की दूरी भी तय करना पड़ती है, रास्ते में करोड़ों स्पर्म मर जाते हैं। मात्र 200 स्पर्म निषेचन स्थल के निकट तक पहुँच पाते हैं। तात्पर्य यह है कि एड्स के वायरस द्वारा संक्रमण निषेचन या गर्भाधान से हजारों गुना सरल है, क्योंकि एड्स के वायरस को न तो 15 सेंटीमीटर की यात्रा और न ही किसी अंडे में छेद करके घुसना है, वायरस जहां गिरेगा वहीं प्रवेश कर सकता है क्योंकि नाको के ट्रेनिंग माड्यूल के अनुसार म्यूकस मेम्ब्रेन सलामत भी हो तो भी वायरस शरीर के भीतर प्रवेश कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त एड्स के वायरस को संक्रमण के लिए करोड़ों वायरस की भीड़भाड़ नहीं चाहिए, कुछ वायरस ही पर्याप्त हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय कण्डोम के छिद्रों का आकार इतना बड़ा है कि संसर्ग के समय के चरमोत्कर्ष के समय जब वीर्य का स्खलन लगभग 45 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से होता है तो शुक्राणुओं के बहिर्गमन की सम्भावनाएं बहुत बलवती हो जाती हैं। ऐसी स्थितियों में सरकारी कण्डोम, भारत के बाजारों में उपलब्ध कण्डोम और विदेशी कण्डोम का छिद्रों के आकार, फटने की स्थिति, असफलता की दर आदि पर तुलनात्मक अध्ययन होना चाहिए। विदेशों में वीर्य स्खलन के समय वीर्य की गति, सतह तनाव, पीएच आदि की स्थितियों में छिद्रों और वायरस के व्यवहार पर अध्ययन किए गए हैं।
• एड्स जैसे गुप्त रोगों के संक्रमण में चुम्बन की वैज्ञानिक भूमिका को जनहित में सार्वजनिक किया जाना चाहिए: नाको द्वारा जारी मेडिकल ऑफिसर्स, नर्सेस और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के ट्रेनिंग माड्यूल्स में चुम्बन विषयक तीन विरोधाभासी वक्तव्य हैं। इसका अर्थ है कि चुम्बन की घातकता के विषय में नाको पूर्णतया जानता है। मेडिकल ऑफिसर्स के लिए लिखा है कि ड्राई किसिंग निरापद है। नर्सेस को बताया है कि साधारण चूमने से नहीं होता है, परन्तु अधिक देर तक चूमने से हो सकता है, जो स्वास्थ्य कार्यकर्ता निरक्षर, कम शिक्षित और नासमझ को जानकारी देते हैं, और जनता के सबसे अधिक संपर्क में रहते हैं, उनके माड्यूल में किसिंग को निरापद बताया गया है, आखिर क्या उद्देश्य हैं? दूसरी बात यौनाकर्षण या यौनाचार के समय होठों का चुम्बन सूखा हो ही नहीं सकता, चिकित्सकों के ज्ञान को देखते हुए, उन्हें अर्द्ध सत्य बताया गया। इसका यह अर्थ भी स्पष्ट है कि होठों का चुम्बन संक्रमण की दृष्टि से तनिक भी निरापद नहीं है, आखिर इस तथ्य को छिपाने के क्या निहितार्थ रहे हैं? अस्तु, नागरिकों और समाज के व्यापक हित में चुम्बन पर एक सुनिश्चित वैज्ञानिक अभिमत को सार्वजनिक किया जाना केन्द्र सरकार का अत्यन्त ही महत्वपूर्ण दायित्व है, भारत जैसे देश में एड्स आदि के संक्रमण को रोकने हेतु चारित्रिक दृढ़ता का प्रचार किए जाने की आवश्यकता सुनिश्चित की जाना चाहिए। चुम्बन की संक्रामकता की वैज्ञानिकता को देखते हुए बाबा रामदेव, धीरेन्द्रजी शास्त्री जैसे संतों के माध्यम से संयम के सन्देश को व्यापक किया जाना चाहिए।

माननीय महो., मुझे सौ प्रतिशत आशा और अपेक्षा है कि आप विषय की गम्भीरता और नागरिकों तथा समाज के सकल हितों को ध्यान में रखते हुए अवश्य ही ठोस और सार्थक कदम उठाने का अनुग्रह करेंगे। तदर्थ आप सभी महानुभावों का सक्रिय और त्वरित सहयोग हेतु पुन: करबद्ध याचना करता हूँ।

— मनोहर भण्डारी