गीत/नवगीत

अपना नहीं है

दुनिया की भीड़ में कोई मेरा अपना नहीं है,
जो टूटा ना हो ऐसा कोई मेरा सपना नहीं है।

दूसरों को सहारा देता हूँ पर खुद बेसहारा हूँ,
सुनो! गैरों का नहीं, मैं अपनों का ही मारा हूँ,
मेरे जैसा किसी का भी जीवन खपना नहीं है।

छत को तकते तकते रात ये काली कट जाती,
तन्हाई ही आकर मेरे बेचैन मन को है बहलाती,
जैसा लेख मेरी किस्मत का ऐसा छपना नहीं है।

दुःखों की इस डोर का सिरा मेरे हाथ में नहीं,
मेरे इस दर्द में खड़ा कोई भी मेरे साथ में नहीं,
जैसे नपा मेरा सुख किसी का भी नपना नहीं है।

काश कोई पढ़ पाता “विकास” का हाल ए दिल,
समझ जाता वो पल में ही उसका ख्याल ए दिल,
उसकी तरह नाम उसका किसी ने जपना नहीं है।

— डॉ विकास शर्मा

डॉ, विकास शर्मा

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