इतिहास

खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी

भारतीय इतिहास ऐसे नायक नायिकाओं की वीर गाथाओं से भरा पड़ा है जिन्होंने मातृभूमि के हित सर्वस्व बलिदान कर इतिहास की धारा को मोड़ दिया। महारानी लक्ष्मीबाई एक ऐसी ही एक महान योद्धा थीं जिन्होंने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और युद्ध में माँ दुर्गा के समान वीरता से शत्रु का सामना किया । रानी उन पराक्रमी विभूतियों में से एक हैं जिनके बलिदान के फलस्वरूप आज भारत स्वाधीनता की सांस ले पा रहा है।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म महाराष्ट्र से काशी आकर रहने लगे मोरोपंत तांबे के घर 19 नवंबर सन 1834 को हुआ था। बचपन में लक्ष्मीबाई को प्यार से मनु कहा जाता था। जब मनु 4 वर्ष की थी तब उसकी मां भागीरथी बाई का काशी में देहांत हो गय। जब मनु के पिता को उसके पालन- पोषण के लिए कोई सहारा न दिखाई दिया तब बाजीराव पेशवा ने उन्हें अपने पास बिठूर बुलवा लिया। यहां पर मनु के पिता उसे अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे।मनु स्वभाव से बहुत चंचल और सुंदर भी थी लोग उसे प्यार से छबीली कहकर बुलाते थे।मनु को यहां पर शस्त्र और शस्त्र दोनों की शिक्षा प्राप्त हुई।सन 1842 में उनका विवाह झांसी के मराठा राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और इस प्रकार वह झांसी की रानी बन गईं । विवाह के बाद उनका नाम रानी लक्ष्मीबाई रखा गया।रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन दुर्भाग्यवश अज्ञात बीमारी से बालक की मृत्यु हो गयी। सन 1853 में उनके पति राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य भी बेहद नाजुक रहने लग गया था तब उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी । पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवंबर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी।
उस समय की अंग्रेज सरकार राज्य हड़प नीति पर चल रही थी और अपनी इसी नीति के अंतर्गत उसने बालक दामोदर राव के खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर कर दिया गया और अंग्रेजी कानून के अंतर्गत अदालत के माध्यम से षड्यंत्र के अंतर्गत जानबूझ कर झाँसी राज्य का खजाना जब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काटने का फरमान जारी कर दिया। इसके परिणामस्वरूप रानी को झांसी का किला छोड़कर झांसी के रानी महल जाना पड़ा । अपने पति के निधन के बाद व अंग्रेज सरकार के दमनचक्र के बाद रानी लक्ष्मीबाई पूरे मनोयोग के साथ 1857 के स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया ।
1857 में आज़ादी की आग पूरे उत्तर भारत में धधक रही थी । झांसी भी इस युद्ध में अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ खड़ी थी और अंग्रेज डनलप को इसकी सूचना मिल चुकी थी इसलिए महारानी लक्ष्मीबाई पर विशेष निगरानी रखी जा रही थी।महल में आने जाने -वाले लोगों की निगरानी हो रही थी तथा पाबंदी भी लगा दी गयी थी लेकिन रानी को अपने जासूसों के माध्यम से सारी सूचनाएं लगातार प्राप्त हो रही थीं ।रघुनाथ सिंह व खुदाबक्श से रानी का संपर्क बना हुआ था। चार जून को कानपुर व झांसी में क्रांति की आग धधक उठी। अंग्रेज अफसर डनलप ने कमिश्नर को सारी सूचना दी। कमिश्नर की सलाह पर छावनी से सभी अंग्रेज अपने परिवार के साथ किले में जाने को तैयार हो गये। अंग्रेज अफसर ने रानी से अपनी सुरक्षा के लिए सहायता मांगी तब रानी ने कहा कि इस समय न तो हमारे पास हथियार हैं और नहीं सैनिक यदि आप लोग कहें तो मैं अपनी जनता की रक्षा के लिए अच्छी सेना खड़ी कर दूं। डनलप स्वीकृति देकर चला गया। उसके बाद सैनिकों के नायक रिसालदार काले खां ने डनलप को गोली मार दी जिसके कारण अंग्रेजों में भगदड़ मच गयी। अपने सहयोगियों के विरोध के बावजूद महारानी ने अंग्रेजों के बीवी और बच्चों को अपने किले में शरण दे दी और उन्हें भोजन भी कराया।उधर 1857 के सिपाही अपनी क्रांति को लगातार आगे बढ़ाते हुए बढ़े चले आ रहे थे और यही रानी के लिए युद्ध में कूदने का सर्वश्रेष्ठ अवसर था।
रानी ने सभा बुलाकर, घोषणा की कि, ”अब समय आ गया है, अब मैं चुप नहीं बैठूंगी भले ही प्राण क्यों न चले जायें। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को मजबूत करना प्रारंभ कर दिया, सेना में महिलाओं की भर्ती कर उन्हें प्रशिक्षण दिया जाने लगा।लेकिन इसके पूर्व दतिया और ओरछा के राजाओं ने रानी का साथ न देकर झांसी पर हमला कर दिया लेकिन रानी ने बड़ी बहादुरी के साथ उनके हमले को विफल कर दिया। 1858 के जनवरी महीने में ब्रिटिश सेना ने झांसी को चारों ओर से घेर लिया था। दो हफ्ते की लडाई के बाद रानी झांसी से भाग निकले में कामयाब रहीं।रानी झांसी से भागकर कालपी और फिर तात्या टोपे के पास पहुंची।
तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया। बाजीराव प्रथम के वंशज अली बहादुर द्वितीय ने भी रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया और वह भी उनके साथ युद्ध में शामिल हुए। लम्बे संघर्षों व युद्धों के बाद रानी ने अपने सैनिकों की वीरता के बल पर झांसी के किले पर नियंत्रण कर लिया। गुलाम गौस खां किले का पुराना तोपची था उसे ही रानी ने तोपची सरदार नियुक्त किया, दीवान जवाहर सिंह को अपना सेनापति बनाया तथा अपनी प्रमुख सहयोगी मोतीबाई को जासूसी विभाग का प्रमुख बना दिया।
रानी लक्ष्मीबाई द्वारा राज्य को नियंत्रण में लेने के पांच दिन बाद मोतीबाई ने सूचना दी कि करेरा के किले पर स्वर्गीय महाराज के रिश्तेदार सदाशिव राव ने हमला कर दिया है। रानी ने बिना देर किये करेरा पर हमला बोला, सदाशिव राव वहां से भागने पर मजबूर हो गया तथा सहायता के लिए सिंधिया दरबार पहुंच गया। सिंधिया के तत्कालीन राजा अवयस्क थे। सिंधया के दिवान ने थोड़ी सेना भेजी जरूर लेकिन तब तक महारानी ने नटवर का घेरा डालकर सदाशिव राव को पकड़ कर झांसी के किले में बंद कर दिया। अब रानी का पराक्रम सर्वत्र फैल गया। रानी ने कई छोटे राज्यों को अपने अधिकार में लेकर उन्हें आजादी की लड़ाई में शामिल करवाया। हर जगह अंग्रेजों के साथ युद्ध चल रहा था। अपने क्षेत्र में महारानी की वीरता का डंका बज रहा था लेकिन उधर अंग्रेज भी वापसी की तैयारी कर रहे थे।
12 मार्च 1858 के दिन अंग्रेज ह्यूरोज की सेना ने अचानक बड़ा हमला कर दिया, इस अचानक हमले में कई सैनिक शहीद हो गये। अंग्रेज सेनापति ने रानी के पास समझौते के लिए एक पत्र भेजा लेकिन महारानी ने इसके विपरीत पत्र भेज दिया। किले पर तोपों का प्रबंधन किया जाने लगा, किले की सुरक्षा और युद्ध का मोर्चा संभालने के लिए उस समय चार हजार सैनिक थे। महारानी ने किले की छत से दूरबीन से सारा नजारा देखा। उन्होंने अपने दो दूत कालपी भेजे ताकि तात्या टोपे से सहायता मिल सके। हयूरोज ने चारों ओर से नाकेबंदी कर दी थी। अंग्रेज सेनापति ने युद्ध शुरू कर दिया। भयंकर गोलीबारी हो रही थी और दोनों ओर से तोपें चल रही थी। अंग्रेज पूरी तत्परता और तेजी के साथ हमला कर रहे थे। महारानी के वीर सिपाही शहीद होने लग गये थे। रानी स्वयं रणचंडी बनकर युद्ध में उतरीऔर अंतिम समय तक संघर्ष किया।
स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में वह पहली ऐसी महिला सेनानी थी जिन्होंने अपने छोटे बालक को पीठ पर बांधकर, घोड़े की वल्गा को दांतों से खींचकर, दोनों हाथों से तलवार चलाई । रानी की वीरता की गाथा आज भी रोंगटे खड़े कर देती है ।
झाँसी के किले का वह स्थान जहाँ से रानी ने घोड़े पर बैठकर किले के बाहर छलांग लगाई थी वह स्थान आश्चर्य से भर देता है, क्या कोई इतना पराक्रमी भी हो सकता है कि यहाँ से कूद जाए? वीरता के इस अद्भुत प्रमाण से प्रेरणा लेने सभी देशभक्तों को झाँसी के किले में जाकर उस स्थान को देखना चाहिए ।
— मृत्युंजय दीक्षित