गीतिका/ग़ज़ल

गजल

मौसम ए फाग कहां तक संभाल कर रक्खूँ

गुल ओ पराग कहां तक संभाल कर रक्खूँ

बदन की आग तो बुझ जाती है कभी न कभी

शिकम की आग कहां तक संभाल कर रक्खूँ

उजड़ रही हैं मुहब्बत की दास्तानें जब

मैं सब्जबाग कहाँ तक सम्हाल कर रक्खूँ

नहीं है रोशनी मिलनी भी जिससे अब मुमकिन

मैं वो चराग कहां तक संभाल कर रक्खूँ

किसी ने की न की परवाह मेरी गाढ़े वक्त

ये गुणा भाग कहां तक संभाल कर रक्खूँ

बहुत तमन्ना है उसका कलाम सुनने की

पर उसके झाग कहां तक संभाल कर रक्खूँ

कोई उमीद नहीं है कि आप सुन लेंगे

ये गीत ۔ राग कहाँ तक संभाल कर रक्खूँ

— डॉ.ओम निश्चल