सामाजिक

पतझड़ के रंग

सूखे बिखरे पत्ते और वीरान पेड़ों को देख अक्सर मैं सोच में पड़ जाती हूं । क्या ये पत्ते अपनी जिंदगी को भरपूर जी पाए? बाल्यावस्था में क्या ये पत्ते कोमलता से लबरेज रहे? क्या यौवन इन पत्तों के सर चढ़कर इठलाई? क्या हर एक पत्ते को प्रकृति का प्यार और आशीर्वाद बराबर से मिला? शायद कुछ पत्ते पूरी तरह खुलने से पहले ही कीड़ों का ग्रास बन गए होंगे शायद बदमिजाज मौसम की मार ने कुछ को उनके  यौवन अवस्था में ही धरातल कर दिया होगा या शायद चंद पत्तों की कहानी इंसानी उंगलियों से मसल कर खत्म कर दी गई होंगी या शायद पत्थरों से लहूलुहान होकर ये पत्ते दम तोड़ बैठे होंगे। आग या बाढ़ ने भी इन्हें कहां छोड़ा होगा, बहुत किस्मत वाले होंगे वे पत्ते जिन्हें भरपूर जीकर समयानुसार मृत्यु नसीब हुई होगी। अगर गौर से सोचे तो क्या इन सूखे पत्तों में हमें हमारी जिंदगी नहीं झलकती? क्या सूखे पत्ते और निर्वस्त्र खड़े पेड़ हमें, इंसानी जिंदगी को, आईना नहीं दिखाते? इन्हीं पत्तों की तरह कितनी मासूम जिंदगियों बचपन में ही गरीबी भूख और बिना इलाज मर्ज रूपी कीड़ों के मुंह का ग्रास बन गई होंगी। ना जाने कितनी मासूम जवानी से भरपूर जिंदगी समाज के बेवजह तानों रूपी पत्थरों से लहूलुहान होकर धरातल हो गई होंगी। न जाने कितनी भावनात्मक तौर पर कमजोर जिंदगी प्यार में असफल होकर ,कभी कॉलेज में रैगिंग का शिकार होकर ,कभी कुंठावश, कभी अपनों के अत्याचार, कभी सड़क चलते गिद्ध मानवों के चंगुल में फंस कर तड़प तड़प के अपनी जिंदगी से आजाद हो गई होंगी। जो इन सारी विपरीत परिस्थितियों का सामना करके वृद्धावस्था को पाते हैं उन्हें भी तो जिंदगी या बेशर्म कर देती है उन पीले पत्तों की तरह जो शान से डोलते हैं तूफानों के सामने भी या तो भीरू बना देती है अपने अस्तित्व को बचाने के प्रयास में उन पत्तों की तरह जो कई पत्तों के आड़ में जीते हैं ,डरे सहमे से, अपनों के तानों से, बुढ़ापे की लाचारी से ,पैसों की मजबूरी से या फिर, “सोने पर सुहागा”, पल प्रतिपल मारने वाली गंभीर बीमारियों से। भोजन से ज्यादा तो शायद दवाई ही पेट में जाती हैं नींद से ज्यादा तो शायद डर या बेचैनी ही रातों में घेरती है। एक पेड़ न जाने कितनी जिंदगी को संरक्षित करता है पर एक बूढ़ा बाप या एक बूढ़ी मां को कई बच्चे भी मिलकर संभाल नहीं पाते हैं। सबको साथ में जोड़कर रखने वाला वृक्ष रुपी मां-बाप बुढ़ापे में अपने व्यस्ततम बच्चों के साथ बातचीत को तरसते हैं ठीक उसी तरह जैसे पतझड़ में खड़ा एक अकेला निर्वस्त्र पेड़।पतझड़ में निर्वस्त्र पेड़ों की तरह जिंदगी वीराम दर्शाती है। सच ही तो लिखा है किसी गीतकार ने

ये जीवन  है,  इस जीवन  का,

यही है यही है यही है रंग रूप।

चैताली दीक्षित

मैं सेंट एंथोनी हायर सेकेंडरी स्कूल, शिलांग में जंतु साश्त्र की सह प्रवक्ता हूं। हिंदी साहित्य में मेरा अत्यधिक रुझान रहा है। मेरी कई कविताएं, आलेख एवं कहानियां राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। मैं महिला काव्य मंच, मेघालय की उपाध्यक्ष भी हूं । शहर समता मंच पर भी मैं एक सक्रिय सदस्य हूं।