कविता

मैं भी तो प्रधानपति

पत्नी प्रधान क्या बनी
मेरा ही नहीं मेरे परिवार का जलवा बढ़ गया,
गांव का घर भी जैसे
राजधानी दिल्ली बन गया है।
सुबह से रात तक आने जाने वालों की
लाइन लगी रहती है,
लाल नीली बत्ती लगी गाड़ियों की 
आमद भी तनिक कम नहीं है।
पत्नी मुंह में गुटखा दबाए बैठी रहती है
खुद को प्रधानमंत्री से कम नहीं समझती है
मुझे अपना पीए बताती है।
बेटा दिन भर लोगों को चाय पानी पिलाता है
बिटिया दिन भर चाय नाश्ता बनाती है
पढ़ाई दोनों की बंटाधार हो गई है,
कभी गलती से भी बच्चों के भविष्य की बात
मेरे मुंह से जो निकल जाए 
तो वो राजनीति के पाठ पढ़ाती है,
बेटी को भविष्य का ब्लाक प्रमुख और
बेटे को विधायक मंत्री के ख्वाब दिखाती है।
पत्नी प्रधान क्या बनी
अपनी तो  किस्मत फूटी गई लगती है,
दिन तो जैसे तैसे कट जाता है,
रात पड़ोसी के छप्पर के नीचे कटती है,
क्योंकि देर रात तक प्रधान जी की
जाने कैसी कैसी बैठकें चलती रहती है।
खाने पीने की व्यवस्था शहर के होटल से चलती है।
खेती का सत्यानाश तो हो ही रहा है
नौकरी पर भी खतरे की तलवार लटक रही है।
अड़ोसी पड़ोसी ईर्ष्यालु हो गए हैं
रिश्तेदार अपनी सुविधा से लूट लूटकर
अपना घर भर  रहे हैं।
अपना दुखड़ा किसको सुनाऊं
पी ए बने रहने की मैं सबसे नसीहत पाऊँ
पत्नी प्रधान बनी है, उसी के गुण गाऊँ
अपना घर तो दिल्ली बन गया है
पड़ोसी के घर आसरा पाऊँ,
पर पत्नी की शान के खिलाफ मुँह न खोल पाऊँ
आखिर मैं भी तो प्रधानपति ही कहलाऊँ। 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921