कविता

गणतन्त्र दिवस

जाने कौन कब से, मुल्क में जहर फैला रहे थे, 

घरों में नागफनी लगाकर, काँटे उगा रहे थे। 

सरहद की हिफाजत में तो सैनिक लगा दिये, 

कुछ दीमक थे जो खिडकी चौखट खा रहे थे। 

बात फकत नागालैण्ड और कश्मीर की नही, 

गली- कूचे, नगर-कस्बे, वह सब पचा रहे थे। 

बाँट दिया अब तलक, मुल्क को सौ टुकडों में, 

घर के भेदी थे, वो पडोसी से वफा निभा रहे थे। 

मुल्क का आवाम, अमन पसन्द पहले भी था, 

कुछ सत्ता के लोभी, हमें आपस में लडा रहे थे। 

धरती की जन्नत, कश्मीर को सदा बताया गया, 

सन्त- शैव, सूफी के, परचम फहराये गये थे। 

बो कर आतंक की फसलें, सियासतदानों द्वारा, 

अलगाववाद, आतंक का अड्डा जमा गये थे। 

तोड डाले थे मन्दिर, मार डाला था पन्डितों को, 

इन्सानियत के पैरोकार नजर नही आ रहे थे। 

अब नया दौर हिन्द का, फिर सामने आ रहा है, 

हिन्दुस्तान का परचम, विश्व में फहरा रहा है। 

सोने की चिडिया रहा, कभी विश्व गुरू था भारत, 

वसुधैव कुटुम्ब का परचम, गगन पर छा रहा है। 

भर गयी थी हवाओं में, बस बारूद की ही गंध, 

केसर की क्यारी से, प्यार बरसाया जा रहा है। 

सनातन की बढ़ती ताक़त, मानवता आधार है,

भारत की सफलता का गुणगान, जग गा रहा है।

— डॉ अ कीर्तिवर्धन