कविता

हमने लोगों को छलते देखा है

रंग बदलने में जिसका नहीं कोई सानी उस

गिरगिट को बहुत बार रंग बदलते देखा है

सादगी बहुत होती थी लोगों के जीने में

वक्त के साथ जीने का ढंग बदलते देखा है

निकलता है सूरज सुबह अपनी मंजिल की ओर

दिन भर रोशनी के बाद उसे भी ढलते देखा है

जिंदगी में क्या है होने वाला कोई नहीं जानता

कोई नहीं बदल सकता जो भाग्य की रेखा है

जीत लिया दुनियां को जिन्होंने अपने बल पर

उन्हें भी चलने फिरने में असमर्थ देखा है

बहुत घमंड था जिन्हें अपनी खूबसूरती पर

उन्हें भी तिल तिल कर मरते हुए देखा है

ग़रूर था बहुत जिन्हें अपनी ताकत का

उन्हें भी असहाय सा मरते देखा है

अजर अमर समझते थे जो अपने आप को

चिता में उनको भी जलते हुए देखा है

उसकी मर्जी के बिना हिल नहीं सकता एक पत्ता भी

बहुतों को हमने पाखंड करते हुए देखा है

घमंड किस बात का नश्वर है यह शरीर तेरा

बाबाओं को हमने लोगों को छलते देखा है

वक्त के हाथ में है सबके जीवन की डोर

वक्त से पहले किसी को नहीं मरते देखा है

ऊपरवाला जो चाहता है वह इंसान नहीं करता

हमेशा उसे अपनी ही मर्जी करते देखा है

— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र