कविता

हम जलाएँ किसकी होली?

हम जलाएँ किसकी होली?
लकड़ियों की ? कंडों की?
या फिर हरे-भरे पेड़ों की या
उन हरे भरे-पेड़ों मे लहराते
झूमते छोटे-छोटे टहनीयों की?
यह एक यक्ष प्रश्न है!!
प्रश्न तो है पर पर कोई इसका
सटीक और सही उत्तर देना चाहता।
पर इतना तो तय है प्रश्न है तो
इस प्रश्न का उत्तर भी होगा।
सभी को पता है पर सभी
अनभिज्ञता जाहिर करते हैं।
हम पर्यावरण का होली
जलाते हैं, इसको जलने
के लिए मजबूर करते हैं।
जो हमारे लिए कितना अहमियत,
रखते हैं,मायने रखते हैं।
हम इस बात को भूल गये हैं कि-
हमें किसकी होली जलानी है?
क्या हमारे अंदर कोई होलिका नही?
क्या हमारे अंदर कोई-
आसूरी दुष्ट प्रवृत्तियां नही?
जिसकी होली जलायी जा सके!!

— अशोक पटेल “आशु”

*अशोक पटेल 'आशु'

व्याख्याता-हिंदी मेघा धमतरी (छ ग) M-9827874578