कविता

सृष्टि चक्र की स्तंभ नारी

भारतीय संस्कृति में
नारी को देवी, लक्ष्मी माना जाता है,
यह और बात है कि इस मान्यता को
सिर्फ अपवादों के धरातल पर ही
स्थान मिल पाता है।
वरना नारियों का इतना दंश नहीं सहना पड़ता,
डर डर कर जीना भी नहीं पड़ता?
हर पल शोषण, अत्याचार और आशंकाओं के
मध्य जीने को मजबूर न होना पड़ता।
सिर्फ तन मन की भूख मिटानें का
साधन मात्र बनना पड़ता।
नारी सिर्फ देह भर है, इस भ्रम से बाहर निकलिए,
जो हमें जन्म देकर, नारी होने की पूर्णता प्राप्त करती है
वही थी जो कल कन्या रुप में जन्म ले
सत्य का बोध कराई थी,
बहन बन पवित्रता सिखाई थी,
पत्नी बन पुरुषार्थ को नव आयाम दिया
और तब फिर मांँ बन पूर्णता को प्राप्त किया।,
सत्य के रुप में सिद्धार्थ को जन्म,
और शिव रुप को कृतार्थ कर
सुन्दर रुपी विद्यार्थ को जन्म दिया,
सत्यमं शिवम् सुंदरम को परिभाषित
आखिर नारियों ने ही है किया।
फिर भी अपने सतीत्व की रक्षा के प्रति
नारियों को सशंकित रहना ही पड़ता है।
क्योंकि उसे तो अब तक न तो कोई वरदान मिला
और न ही सुरक्षित वातावरण हम ही दे पाये,
नारी सुरक्षा और सशक्तिकरण का हम
आज भी सिर्फ ढोल ही पीट रहे हैं,
उनके मन में विश्वास का भाव नहीं जगा पा रहे हैं।
नारी कल भी असुरक्षित थी
और आज भी असुरक्षित है
डर के साये में बस जीती जाती है,
फिर भी जननी होने की जिम्मेदारी उठाने से
वो कभी पीछे नहीं भागती है,
क्योंकि वो सृष्टि चक्र का स्तंभ है
ये बात बहुत अच्छे से जानती है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921