मेरी डायरी के पन्नों में तुम
मुझे इस बात से कहाँ इंकार है कि तुम मेरी नब्ज़ों का तरन्नुम बन गए थे, उन दिनों, मैं किस हद तक तुम्हारी दीवानगी में मुब्तिला रहा करता था,तुम मेरे अहसासात पर किस तरह छाए हुए रहते थे, में तो भूल नहीं पाता हूँ, क्या वो सभी पल आपने इतनी आसानी से भुला दिये, तुम्हारे बग़ैर ये ज़िन्दगी आज भी ख़ामोश और तन्हा ही है, अधूरा पन कभी मुकम्मिल न हो सकेगा, मैं आज भी दिल की बेइंतेहा गहराईयों से तुम्हें प्यार करता हूँ, कभी कभी मेरे दिल मे ख्याल आता है , और फिर तुम्हारी यादों की शबनमी ठंडक मेरे ज़हन को अपने आग़ोश में लेकर मेरे वज़ूद को ज़ख्मी कर देती है,
मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि जिंदगी एक हक़ीक़त है, जिसमें क़दम क़दन पर मसाइलों से दोचार होना पड़ता है, और इन मसाइलों से आँखे चुराई नहीं जा सकती हैं, और न ही इन से भागा जा सकता है, ये सच है कि तुमको पाना मेरा एक ख़्वाब ही रहा, लेकिन न जाने क्यों ये ख्वाबों की ताबीरें मुझे तुम्हारी मुहब्बत से दूर जाने नहीं देती हैं, वक़्त कितना बीत गया , कनपटी पर चांदी जैसे बाल नज़र आने लगें हैं, लेकिन तुम्हारा चेहरा आज भी उतना ही हसीन नज़र आता है जैसे तुमआज भी किताबें हाथों ने लेकर कॉलेज को निकलने वाली हो, तुम्हरी एक झलक भी अब मुझे मयस्सर न हो सकी,,उफ़ मेरे अल्लाह कितना दर्द है मेरे सीने में,मैं सोचता था सारे मरहलों को पर कर के तुम्हें पा जाऊंगा, मेरी जिंदगी अब ख़ामोश सी रहा करती है, लोग मुझे पागल क़रार दे चुके हैं, क्यों न समझें हाँ मैं पागल हूँ, तस्लीम करता हूँ, तुम्हारा दीवाना हूँ, मुझे कुछ नहीं चाहिए बस ता क़ायमत लोग मुझे तुम्हारे नाम से पुकारें, ये ही मेरी मेहराज होगी,
मेरे हमनवा मेरे गमख्वार जीस्त के सफ़र में साथ चलते चलते तुम न जाने कहां खो गए, मैं आज भी तुम्हारे इंतज़ार में तन्हा खड़ा हूँ, हर आहट पर तुम्हारे आने का गुमां होता है, काश मैं तुमको भूल पाता, क्या कहानी खत्म हो गई ,नहीं नहीं नहीं… किसी ने क्या खूब कहा है…
फना के बाद भी निभाएंगे फर्ज़े मुहब्बत को,
गुबारे राह बनकर हम तेरा दामन न छोड़ें गें,
— डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह