राजनीति

चीन है कि मानता नहीं – अरुणाचल विवाद भी नेहरू की देन

भारत में चुनावी सरगर्मियों के बीच पड़ोसी राष्ट्र चीन ने एक बार फिर भारत के प्रति शत्रुता का भाव प्रदर्शित करते हुए अपना पुराना राग फिर छेड़ दिया है। विस्तारवाद की कुटिल रणनीति के तहत चीन ने भारत के सीमावर्ती व सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अरुणाचल प्रदेश की 30 जगहों का नाम बदलकर तनाव बढ़ाने का प्रयास किया है जिसका भारत सरकार ने भी सटीक व कड़ा उत्तर दिया है। चीनी हरकत पर भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि,” अगर मैं आपके घर का नाम बदल दूं तो क्या वो मेरा हो जाएगा?अरुणाचल भारत का एक राज्य था है और हमेशा रहेगा, नाम बदलने से कुछ होने वाला नहीं है।  

ज्ञातव्य है कि चीन अरुणाचल प्रदेश को ”गंजनान” कहकर संबोधित करता है। चीन ने 2017 में अरुणाचल प्रदेश के छह जगहों के नए नामों की सूची जारी की थी, 2021 में 15 जगहों के नाम दिये गये थे जबकि 2023 में 11 नये नाम की सूची जारी की गयी थी। चीन की ओर से अरुणाचल प्रदेश की जगहों के नाम बदलने की हरकतों का भारत पहले भी विरोध करता रहा है। चीन की ताजा हरकत की अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने भी कड़ी निंदा की है और उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स  पर लिखा कि, “यह चीन की एक और नौटंकी है भारत का एक गौरवान्वित नागरिक और  अरुणाचल प्रदेश का मूल निवासी होने के नाते मैं अरुणाचल  प्रदेश के भीतर जगहों के नामकरण की कड़ी निंदा करता हूं। भारत सरकार ने बहुत कड़ाई  के साथ चीन के सभी दावों को पूरी तरह से खारिज  कर दिया है असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिसवा सरमा ने और भी कड़ा रूख अपनाते हुए कहा कि भारत को जैसे को तैसा वाला जवाब देते हुए चीन के तिब्बती क्षेत्र के 60 क्षेत्रों का नाम बदल देना चाहिए। 

अरुणाचल प्रदेश को लेकर चीन के साथ भारत का विवाद बहुत पुराना है। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद भारत सरकार सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास पर पर्याप्त ध्यान केंद्रित कर रही है। सीमाओं पर तीव्र गति से सड़कों, पुलों  और संचार व्यवस्था का विकास हो रहा है जिसके कारण चीन भारत से चिढ़ रहा है। मार्च 2024 के प्रथम सप्ताह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरुणाचल प्रदेश का दौरा किया था और वहां 13 हजार फीट की ऊंचाई पर सेला सुरंग  का उ्दघाटन किया था। सेला सुरंग रणनीतिक रूप से स्थित तवांग को किसी भी मौसम में किसी भी समय कनेक्टिविटी प्रदान करेगी। माना जा रहा है कि इससे सीमा वाले क्षेत्रों में भारतीय सैनिकौं की आवाजाही भी आसान हो जाएगी बस यही बात चीन को खल रही है और उसने अपनी हरकतें एक बार फिर तेज कर दी हैं जबकि पूर्वी लददाख में भी उसकी सेनाएं अभी तक पीछे नहीं हट रही है। 

भारत ने चीन को कड़ा जवाब देते हुए कहा कि भारत की सेना एलएसी पर तैनात है। वर्ष 2020 में चीन और भारत की सेना के बीच हुई हिंसक झडप़ के बाद से दोनों देशों के बीच 21 बार सैन्य वार्ता हो चुकी है किन्तु चीन की हठधर्मिता के कारण कोई हल नहीं निकलता नहीं दिख रहा है।  

अरुणाचल प्रदेश के प्रति चीन का यह रवैया स्वतंत्रता प्राप्ति और अरुणाचल प्रदेश के गठन के साथ से ही चला आ रहा है जबकि वास्तविकता यह है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अविभाज्य अंग है और इस मुद्दे पर विश्व के देश भारत का समर्थन करते हैं। चीन समय- समय पर अरुणाचल को लेकर आपत्तिजनक हरकतें  करता रहता है जैसे भारत के प्रधानमंत्री या मंत्री के अरुणाचल जाने पर उसका विरोध करते हुए बयान जारी करना। चीन ने 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के अरुणाचल दौरे का विरोध किया था। 2020 में गृहमंत्री अमित शाह के अरुणाचल दौरे पर भी चीन ने बयानबाजी की थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समय भी चीन का यही रवैया था। भारत हर बार चीन को मजबूती से जवाब देता रहा है। 

चीन अरुणाचल प्रदेश में 90 हजार वर्ग किमी जमीन पर अपना दावा करता है जबकि भारत का कहना है कि चीन ने अक्साई चिन के 38 हजार वर्ग किमी क्षेत्र अवैध रूप से कब्जा कर रखा है। चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत बताता है, दोनो देशों के बीच 3500 किमी लंबी सीमा है।1912 तक तिब्बत और भारत के बीच कोई स्पष्ट रेखा नहीं खीची गई थी। इन क्षेत्रों पर न तो कभी मुगलों का और न ही अंग्रेजो का कोई नियंत्रण रहा। भारत और तिब्बत के लोग भी किसी स्पष्ट सीमा रेखा को लेकर निश्चित नहीं थे। जब तवांग में बौद्ध मंदिर मिला तब सीमा रेखा का आंकलन प्रारम्भ हुआ। चीन ने तिब्बत को कभी भी स्वतंत्र देश नहीं माना । 1950 में चीन ने तिब्बत को पूरी तरह से अपने कब्जे में ले लिया था यह सभी इलाके लद्दाख से जुड़े हुए थे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय जवाहर लाल नेहरू ने चीन की हरकत का समर्थन कर दिया जिसका परिणाम आज संपूर्ण भारत भुगत रहा है। नेहरू जी की अदूरदर्शिता के कारण ही चीन के साथ सीमा विवाद उत्पन्न हुआ और आज भी वंशवादी कांग्रेसी नेता चीन के समर्थन में ही बयानबाजी करते दिखाई देते हैं। 1949 में माओत्से तुंग ने पी आर सी (चीन) का गठन किया और एक अप्रैल 1950 को नेहरू जी ने  सबसे पहले राजनैतिक मान्यता दे दी, 1954 में भारत ने तिब्बत को लेकर भी चीनी संप्रभुता को स्वीकार कर लिया। 

सौ वर्ष पुराना विवाद – भारत के अरुणाचल प्रदेश वाले क्षेत्र को पहले नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी कहते थे। 20 जनवरी 1972 को अरुणाचल प्रदेश का बना और 20 फरवरी 1987 को इसे भारत का  24वां राज्य घोषित किया गया ।राज्य में 98 प्रतिशत जंगल और 2 प्रतिशत जल है। राज्य की सीमाएं भूटान, तिब्बत और म्यांमार के साथ जुड़ी हैं। इस क्षेत्र पर विस्तारवादी चीन की नजर हमेशा से रही है । भारत और चीन के बीच विवाद की प्रमुख वजह 3500 किमी लंबी सीमा रेखा है जिसे मैकमोहन रेखा कहते हैं। यही रेखा 1962 के भारत चीन युद्ध का केंद्र थी। चीन 109 वर्ष पूर्व ब्रिटिश भारत और चीन के मध्य हुए समझौते को नहीं मानता जिस में तवांग को भारत का भाग माना गया था। 

अरुणाचल को लेकर चीन क्यों परेशान – जब से केंद्र में मोदी सरकार आयी है तभी से भारत अरुणाचल सहित सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास व वहां के नागरिकों का पलायन रोकने के लिए संकल्पबद्ध होकर कार्य कर रहा है।  केंद्र सरकार वहां एक  फ्रंटियर हाईवे बना रही है जो पांच वर्षां में पूरा हो जाएगा। जिसके बन जाने पर तिब्बत- चीन- म्यांमार से सटी भारतीय सीमा के निकट सेना की आवाजाही बहुत सरल हो जाएगी। पूरे हाईवे  में 800 किमी सड़क हरियाली  वाली जगहों पर बनेगी क्योंकि इन इलाकों में अभी कोई सड़क नहीं है। इस पर पुल और सुरंगे भी बन रही हैं। यह निर्माण कार्य पूर्ण होने पर इस क्षेत्र के विकास में और भी वृद्धि होगी। 

जब नेहरू जी के समय में चीन ने भारत पर हिंदी चीनी भाई -भाई  के नारे की आड़ में  हमला बोल दिया था तब सेनाओं की आवाजाही के लिए अच्छी सड़कें तक नहीं थी और ये भी भारत की पराजय के कारणों में से एक था। अब भारत अपने सीमावर्ती क्षेत्रो को मजबूत कर रहा है। चीन से सटे गांवों में विकास पर विशेष बल दिया जा रहा है। 

चीन की परेशानी का दूसरा कारण, भारत में  चुनावी सरगर्मियों के मध्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भूटान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया जाना भी है। ज्ञातव्य है भारत भूटान अपने छोटे भाई की तरह सम्मान और सहायता देता रहा है । वहीं दूसरी ओर चीन अपनी विकृत विस्तारवाद की नीति के तहत कभी ताइवान और कभी फिलीपींस आदि छोटे देशों को धमकाता रहता है। इस बार भारत ने भी चीन को सावधान करते  हुए कहा है कि अगर फिलीपिंस पर हमला हुआ तो इसका कड़ा प्रतिवाद किया जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 4 जून को सत्ता में वापसी के बाद पड़ोसी राष्ट्रों से इस प्रकार के सीमा विवाद सुलझाने पहल फिर तेज हो सकती है। 

— मृत्युंजय दीक्षित