कविता

तेजाबी इश्क

हे प्रियतम!
अब महसूस कर पायी हूँ
तुम्हारे प्रेम को
कितनी पीड़ा में थे प्रेम करके
हमेशा मेरी सुंदरता की
बखान करते थे।
गजगामिनी,मृगनयनी कभी
दामिनी कहकर पुकारते।
मेरे नखशिख का सौंदर्य वर्णन
करते थकते नहीं थे तुम
उर्वशी,मोहिनी,मेनका और
ना जाने और कितने नामों से।
मेरी सुंदरता को परिभाषित करते
रहते थे तुम पर ना जाने क्यों
मेरे मन का प्रेम तुम्हारे संग
बैठ ही नहीं पाया और
तुम बिठाने की कोशिश करते।
जब समझाने की कोशिश की
तो तुम्हें सिर्फ और सिर्फ
मेरी सुंदरता से राग हुआ है।
तुम कहते कि मेरे हृदय की
सुंदरता से इश्क है 
पर मैं क्या करती तुम्हारे प्रेम को
समझ ही नहीं पाई।
मुझे किसी और के हृदय की
सुंदरता से प्रेम था
और उसे भी मुझसे।
मेरे हृदय की सुंदरता से
ऐसा वह कहा करता था
वह भी मेरी खूबसूरती की
तारीफों का महल बिल्कुल
तुम्हारी तरह ही खड़ा करता था।
और वह मेरे रोम-रोम को
प्रफुल्लित कर देता।
वह शुभ घड़ी आ ही गई जब
मैं और वो दो जिस्म एक जान
वाले बंधन में बंध गए।
सात फेरों के सातों वचन
सातों कसमें साथ-साथ खाए
मुझे लगा मेरी पूरी दुनिया
मुझे मिल गई और मेरी सारी
खुशियां मुकम्मल हो गई।
लेकिन यह भूल कैसे गई कि तेरी
दुनिया तो मैंने उजाड़ दी थी।
तो तुम मेरी दुनिया
भला कैसे बसने देते।
तुमने बेइंतहा मोहब्बत किया था
अगले ही क्षण तुमने मेरे
दुल्हन के चद्दर को हटाकर
अपने प्रेम का तेजाबी चद्दर
मुझे ओढ़ा दिया
देखो ना जिसने कुछ क्षण पहले
सात जन्म साथ रहने की
कसमें खायी थी उसने मुझे मेरे
बदले रूप के साथ
उसी क्षण त्याग दिया।
उसे मेरे मन की सुंदरता अब क्यों
नहीं दिखाई दी?अब सोचती हूं
इस दर्द भरे ताप के साथ कि
कितना दर्द से भरा हुआ
तुम्हारा प्रेम है,आओ ले चलो
मुझे अपनी दुल्हन बनाकर।
मैं अब चलने के लिए तैयार हूं
तुम्हारे प्रेम को समझ चुकी हूं।
तुम चाहते थे कोई बुरी नजर
ना डालें मुझ पर,सच मे
बुरी नजर नहीं पड़ती है अब।
अब पूर्ण रूप से मैं तुम्हारी हूं
तुम मेरे होंठों को स्पर्श करने
के लिए आतुर रहते थे ना
मुझे आलिंगन करके
मेरी सुंदरता को अलंकृत
करना चाहते थे तुम!
मेरी मृग नैनी झील सी आंखों में
डूब जाना चाहते थे तुम!
मेरी जुल्फों की घटाओं में
गुम हो जाना चाहते थे तुम!
मेरी इस बलखाती मदमस्त
जवां अदाओं को पी जाना
चाहते थे तुम!तो आओ आज मैंने
स्वतंत्र कर दिया है खुद को
और तुमको भी उड़ेलो अपना प्रेम
मेरे तेजाबी जिस्म पर
जिस पर तुमने अपने प्रेम की
तेजाबी मुहर लगाई है।
मेरे सुहागरात का बिछौना
बिल्कुल वैसे ही सजा हुआ है
उस पर पड़ी हुई सफेद
मलमल की चद्दर पर
अब तक कोई सिलवटें नहीं पड़ी
उन पर सजे हुए फूल
अब तक मुरझाए नहीं है
आओ उड़ेलो अपना तेजाबी प्रेम
मैं भी देखना चाहती हूं कि
कितनी सिलवटें पड़ती हैं
इन कोरी चद्दर पर
यह फूल भी बेकरार है तुम्हारे प्रेम
की ताप से मुरझाने के लिए।
आओ इन सब को गवाही दो
अपने तेजाबी प्रेम का क्योंकि
तुमने तो मेरे हृदय की सुंदरता से
प्रेम किया था, ऐसा ही कहा था।
फिर अभी तक मौन क्यूँ हो
मैं वही गजगामिनी मृगनयनी, 

दामिनी,उर्वशी,मेनका हूं।
आओ मुझे दिखाओ अपना
तेजाबी इश्क!!!

— मांडवी सिंह

मांडवी सिंह

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार,कुशीनगर-उ.प्र.