सामाजिक

पात्रता एवं अपात्रता का चिन्तन

प्रत्येक वस्तु के स्वयं का अपना एक अलग ही महत्त्व होता है। लेकिन उसका महत्त्व प्रायः स्थाई एवं उत्तम नहीं होता। क्योंकि ऐसा न हो तो एक ही वस्तु अलग-अलग परिणाम देने वाली नहीं बन सकती है। जैसेकि पानी की बूँद एक समान होने के बावजूद भी उसका परिणाम अलग-अलग आता है। जैसे स्वाति नक्षत्र में आकाश से जल की एक बूँद यदि शीप में गिरती है तो वह बूँद मोती बन जाती है। उसी नक्षत्र में वैसी ही बूँद यदि कैले के वृक्ष पर गिरती है तो वह कपुर बन जाती है एवं उसी समय में वैसी ही बूंँद यदि साँप के मुँह में गिरती है तो वह ज़हर बन जाती है। स्थिति स्पष्ट है कि एक बूँद अपना परिणाम किस-किस स्थान पर कैसा दे सकती हैं। ऐसे परिणाम उसे पाने वाले की पात्रता पर निर्भर करता है। अर्थात् वस्तु को पाने वाला पात्र यदि अच्छा है तो उसका परिणाम भी अच्छा ही आयेगा और बुरा है तो बुरा।
इस सनातन सत्य को समझने के लिए नीतिकारों ने एक उदाहरण गाय एवं सांप का दिया है। यह सभी जानते है कि गाय को खाने के लिए घास जैसी तुच्छ एवं सामान्य वस्तु ही प्राप्त होती है, फिर भी वह घास के बदले हमें दूध प्रदान करती है। जबकि सांप के सामने पीने के लिए दूध जैसा सर्वश्रेष्ठ पदार्थ होने के बाद भी वह उसे पीकर उसे ज़हर में बदल देता है। यह परिणाम गाय के पात्रता की प्रतिष्ठा स्थापित करती है तो सांप की अपात्रता को दर्शाता है। पात्र के हाथ में यदि बेकार चीज भी आ जाए तब भी वह उसको बिगाड़ता नहीं है। अपितु पात्रता की योग्यता उसे लाभकारी बना देती है। एक योग्य वैद्य के हाथ में यदि ज़हर भी आ जाए तो वह उसे दवा के रूप गुणकारी बना देता है। अपात्र के हाथ में चाहे कितनी भी उत्तम वस्तु लग जाए फिर भी वह उससे लाभ लेने के स्थान पर वह उसके लिए अहितकारी ही सिद्ध होती है।
जैन धर्म में सम्यग्दृष्टि वाले की बहुत प्रशंसा की गयी है। उनके लिए तो यहाँ तक कहा गया है कि वो कभी भी पाप नहीं करते। (सम्यग्दृष्टि संसार में रहते हुए पाप करते नहीं बल्कि उन्हें करना पड़ता है) कदाच् पाप करना भी पड़े तो वह किया गया पाप उनका अहित नहीं करता। कभी-कभी तो वह पाप भी तीव्र पश्चात्ताप के संयोग से कर्म निर्जरा में सहयोगी बन जाती है। ज्ञानीजन कहते हैं कि आत्मा को उज्ज्वल बनाने के लिए उसकी पात्रता आवश्यक है अर्थात् सम्यग्दृष्टि। जबकि जिसकी दृष्टि ही मिथ्या हो उसके लिए तो संत भगवन्तों का सान्निध्य एवं संत वाणी भी उसे तिराने में सहायक नहीं होती और तो और जिनवाणी भी उसकी पथ-प्रदर्शक नहीं बन सकती। दृष्टि में मिथ्या मान्यता के घर कर जाने के कारण उसके लिए चारों और अंधेरा-ही-अंधेरा छा जाता है। एक सच्चे गुरु के मार्ग-दर्शन में व्यक्ति सही पथ पर चलता है परन्तु उनकी अनुपस्थिति में उसके अनजान तथा गलत मार्ग पर भटकने की संभावना बनी रहती है।
गुरु की कृपा पाने से पहले सुयोग्य शिष्य बनना पड़ता है। तभी हमारे भीतर में ऐसी पात्रता विकसित होगी। जिसमें गुरु की कृपा भी बरसे एवं उसके परिणाम के रूप में शिष्य स्वयं सुयोग्य पात्र बन पाये।
जिनवाणी से हमें क्या मिल रहा है, उसका इतना महत्त्व नहीं है, उससे भी ज्यादा महत्त्व उसे एक सच्चे ग्रहणकत्र्ता के रूप में आचरण में लाना होता है। पूर्व में दिए गए उदाहरण से हमें गाय जैसा बनना होगा तभी तो हमारा बेड़ा पार होगा, फिर चाहे सामने से मिलने वाला घास जैसी तुच्छ पदार्थ ही क्यों न हो। मिथ्यादृष्टि वाले को हम सांप जैसा समझ सकते है, जो दूध को भी जहर में बदल देता है। कहा जाता है कि अंधे से भी ज्यादा करुणता पाता है मिथ्यादृष्टि वाला जीव। अंधा तो वह होता है जिसे दिखाई नहीं देता जबकि मिथ्याज्ञानी वह होता है जो विपरीत सोचता है, विपरीत देखता है एवं विपरीत ही आचरण करता है। इससे उसके जीवन में अहित हो भी जाए तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
हम सब अभी सांप के स्वभाव जैसे है किन्तु अब हमें उसको गाय के स्वभाव में परिवर्तित करना होगा। जिससे हमारा मिथ्याज्ञान दूर हो जाए एवं हम सम्यग्दृष्टा बन जाए फिर हमें कोई भी भ्रमित एवं भयभीत नहीं कर सकता है। हमें ज़हर को अमृत बनाने की कला से कोई रोक नहीं रहा है। हमें चिन्तन करना होगा कि कहीं हम दूसरों का अहित तो नहीं कर रहे हैं। एक सम्यग्दृष्टि ही दूसरों के बिगाड़ में निमित्त बनने से बचता है। सम्यग्दृष्टि एवं चिन्तन से समृद्ध बनने पर ही इस भव की सार्थकता है।

— राजीव नेपालिया (माथुर)

राजीव नेपालिया

401, ‘बंशी निकुंज’, महावीरपुरम् सिटी, चौपासनी जागीर, चौपासनी फनवर्ल्ड के पीछे, जोधपुर-342008 (राज.), मोबाइल: 98280-18003