नहीं आपस में लड़ना
अंधे आप भी हैं और अंधा मैं भी हूं,
इंसानियत समझ ही नहीं पा रहे तो
दोष आपको दूं या फिर खुद को दूं,
कोई दूर बैठे पासा फेंक चाल चल रहा है,
हमारे मस्तिष्क पर कब्जा कर
हम दोनों को छल रहा है,
छल से अनजान हम दोनों लड़ रहे हैं,
अपने ही अंत की ओर शनैः बढ़ रहे हैं,
क्या इतने गंवार या अनपढ़ हैं जो
समझ ही नहीं पा रहे मक्कारों की मक्कारी,
उनके बताये अनुसार ही निभा रहे दुनियादारी,
असल में हम अनभिज्ञ हैं अपने आप से,
दूर चले जा रहे अपने ही समाज से,
और प्रेरणा नहीं ले रहे गौरवशाली इतिहास से,
जुड़ गए हैं अपने आप की विनाश में,
वरना मुट्ठी भर कुछ लोग
हमारे सिर पर नहीं बैठते,
हमारा ही सब कुछ होने के बाद भी
अकड़ दिखा नहीं ऐंठते,
हम प्रकृति के बाशिंदे सबसे चार कदम आगे हैं,
नींद में होकर भी आये रहते जागे जागे हैं,
शत्रु की नजर हमेशा हमारी कमजोरी पर है,
वे हमसे सतर्क पर सीनाजोरी पर हैं,
क्यों?आखिर ऐसा क्यों?
सतर्क रहना होगा यदि आगे बढ़ना है,
न कि विरोधियों को बढ़ा आपस में लड़ना है।
— राजेन्द्र लाहिरी