दायित्व बोध
“एक ग्लास पानी और चाय लाना, वंदना बहू।” रमेश के पिता परमेश्वर ने अपने समधी पारसनाथ के आते ही कहा।
“अभी तो आपको हमने पानी और चाय दिए हैं, क्यों परेशान करते रहते हैं आप, हमें।” घर के अंदर से वंदना की आवाज आई,जो तिखापन से भरी थी। जिसे वंदना के पिता ने सुन लिया, उन्हें अपनी बेटी की आवाज अच्छी नहीं लगी, क्योंकि यह एक पिता के ऊपर प्रहार था।
“तुम्हारे पापा आए हैं वंदना बहू, भला मैं तुम्हें क्यों परेशान करूंगा।” रमेश के पिता ने दबते हुए कहा। और,,,, और पिता के आने की बात सुनते वंदना साफ-सुथरे गिलास में पानी और कप में चाय लिए तुरंत आ गयी।
“पापा आपको अंदर आना चाहिए, यह घर अपना है न।” वह अपने पिता के पांच छूते एक सांस में कह गयी।
“हां, अब यह घर तो तुम्हारा ही है बेटी, बेटी लेकिन अपने घर को तूने अपना रहने कहांँ दिया है ?” वंदना के पिता ने खुलते हुए कहा।
“पापा, हमारे घर में आप हमें तमाचे लगा रहे हैं? वह भी,,,,,।”
“हांँ, तुम्हें तमाचे लगा रहा हूंँ, मैं ,,, और वह भी तुम्हारे श्वसुर के सामने,,,, तुमने एक पिता को पिता रहने कहांँ दिया है, अंदर से झुझलाती है हीरा जैसे आदमी पर, देख तुम खुद देख मेरा गिलास कितना साफ-सुथरा है और इनका कितना मैला,,,, क्या यह जानवर हैं आदमी नहीं, क्या इन्हें साफ-सुथरे से एलर्जी होती है? आरे कीचड़ में जन्मी कमलिनी कम से कम यहां तो अच्छा व्यवहार कर, अच्छा कि घर में खुशियाँ, बनी रहे।” पिता की डांट सुनते वंदना की आंखें खुल गईं।
— विद्या शंकर विद्यार्थी
