मुक्तक/दोहा

दोहा तैतीसा

गजमुख की कर वंदना, धर शारद  का  ध्यान ।

पञ्च देव सुमिरन करूँ,रखो कलम का मान ।।

ईश्वर   के  आशीष  से, दूने  हो दिन  रात ।

बिन मांगे  सबको मिले,मेरी ये सौगात ।।

अधर  गुलाबी मधु भरे,तिरछे  नैन  कटार ।

मुख गोरी का चाँद सम,उतरा हिय के पार ।।

इक  दूजे  को  थाम कर,बढे  चलो  सब  यार ।

मिलजुल कर विस्तृत करो, हिन्द काव्य परिवार ।।

बिछड़ गये जब से सजन,पीर बनी मन रोग |

तन्हा  बिन   तेरे   हुआ,कैसा   यह   संयोग ||

धड़क  रहा  है  जीयरा,तडप   बनी   है   पीर |

किधर गये  तुम रांझना, व्याकुल तुम बिन हीर ||

धड़कन  पर  तुम ध्यान दो,समझ  इसे   गंभीर |

कलम उठा कर सब लिखो,खटक रही जो पीर ||

मनमोहक दो कुँवर है,जिनका रूप अनूप |

ओज झलकता दूर से,मानो  वो  हों   भूप ||

धक-धक धड़कन है चले,धड़क रहा मन जीव |

देखा   जबसे    नैन   भर,मान  लिया  है  पीव ||

मान, प्रेम  जिस  घर  रहे,वहां ईश का वास ।

मिलजुल कर सब जन रहो, पूरी होगी आस ।।

सच  को कभी न त्यागिये, सच है पुण्य समान ।

झूठ बोलकर छल रहे, खुद को क्यों जजमान ।।

इक  दूजे  से  सीखकर, पाते सब ही ज्ञान |

पूरण कोई है नही,फिर क्यों ये अभिमान ||

बात  कहूँ  में  लाख  की,धर थोड़ा सा ध्यान |

ज्ञान मिले जित भी तुझे,ले तू तज अभिमान ||

माना  है  दूरी  मगर,समझो कभी  न  दूर |

दिल  में तुम हरदम रहे,लेकर प्यार हजूर ||

खेल-खेल में खेलकर,खेल गये वो खेल |

हम खेले जब खेल को,हमे न पाए झेल ||

साँझ  सवेरे  जोहती,साजन  थारी  बाट |

कद आओगे थे लिखो,मनवा भरे उचाट ||

टेढ़ा  मेडा   पथ   नही,बढ़े चलो  तुम  यार ।

मिट जाएगा सब यहाँ,बाकी बस यह प्यार ।।

नारी के उत्थान को,करना जतन नवीन ।

रहे न कोई फिर यहाँ,नारी अबला दीन ।।

पढ़ लिखकर आगे बढ़ो,करो जगत में नाम ।

दृढ़  निश्चय संकल्प ले,लगे रहो अविराम ।।

नारी  संयम नाम है, बुध्दि कुशल अनुरूप ।

समय देख धारण करो,नारी नूतन रूप ।।

हार कभी मत मानना,बाधाएं हों लाख ।

लग्न लगा कर कर्म से,कर देना तू ख़ाक ।।

झूठ भरा यह दौर है,मतलब के सब लोग ।

प्रेम  विषैला हो  गया,फ़ैल  रहे नित रोग ।।

पड़ना मत  इस जाल में,ध्यान भंग हो जाय ।

राँझा मजनूँ ना दिखे,विकट घड़ी जब आय ।।

नाम सरस अनमोल  है, सरस जुड़े अनमोल |

सरस-सरस सब बोलिये, सरस बिके बेमोल ||

आईना सच को कहे, मन भीतर तो झांक ।

दोष निकालो गैर में, लो खुद को भी आंक ।।

क्षमा दान तुम दीजिये, जो कोउ त्रुटि होय ।

क्षमा बड़ों को शोभती, यही नेह कूँ बोय ।।

हार कबहू न मानिये, खेलो चाहे खेल ।

मन के हारे हार है, हार-जीत को मेल ।।

जीत तुझे जो चाहिए, कर्मवीर कर काम ।

हार जीत की राह है, लगे रहो अविराम ।।

अहम वहम को त्याग कर, करते रहना काम |

ले खुद  से  संकल्प  तुम, करदो जग में नाम ||

फूटी  गागर  हो  अगर, भर  ना  पाए   नीर |

ऐसी ही समझो पथिक, लिखी हुई तक़दीर ||

कलम खुदा की गर लिखे, मानस की तकदीर |

कर्म   प्रबल  होता  नही, ना   सागर  के  तीर ||

नमन करूँ हे नाथ शिव, धर चरणों में ध्यान |

तुम  देवो  के  देव  हो, करो जगत  कल्याण ||

शुक्लपक्ष की चौथ औ, भादो का जब मास |

गणपति  जी  जन्मे यहां, हरे सभी के त्रास ||

— नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”

नवीन श्रोत्रिय 'उत्कर्ष'

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