ग़ज़ल
न वक्त का कुछ पता ठिकाना
न रात मेरी गुज़र रही है ।
अजीब मंजर है बेखुदी का ,
अजीब मेरी सहर रही है ।।
ग़ज़ल के मिसरों में गुनगुना के ,
जो दर्द लब से बयां हुआ था ।
हवा चली जो खिलाफ मेरे ,
जुबाँ वो खुद से मुकर रही है ।।
है जख़्म अबतक हरा हरा ये ,
तेरी नज़र का सलाम क्या लूँ ।
तेरी अदा हो तुझे मुबारक ,
नज़र से मेरे उतर रही है ।।
मिरे सुकूँ को तबाह करके ,
गुरूर इतना तुझे हुआ क्यूँ ।
तुझे पता है तेरी हिमाकत ,
सवाल बनकर अखर रही है ।।
न वस्ल को तुम भुला सकी हो,
न हिज्र को मैं भुला ही पाया ।
यहाँ रकीबों की वादियों में ,
तेरी ही खुशबू बिखर रही है ।।
हमारे दिल में हमी से पर्दा ,
गुनाह कुछ तो छुपा गई हो ।
है दिल का कोई नया मसीहा ,
तू जिसके दम पे निखर रही है ।।
किसी तबस्सुम की दास्ताँ पे ,
फ़ना हुआ है गुमान जिसका ।
है कत्ल खाने में जश्न इसका,
कज़ा की महफ़िल गुजर रही है ।।
हुजूर चिलमन से देखते हैं ,
गजब का मौसम है कातिलाना ।
ये इश्क भी क्या अजब का फन है
नज़र नज़र पे ठहर रही है ।।
तमाम रातो के सिलसिलों में ,
खतों से अक्सर पयाम आया ।
जो चोट मुझको मिली थी तुझसे
वो फ़िक्र बनकर उभर रही है ।।
—– नवीन मणि त्रिपाठी
पेंटिंग चित्र – आभार सहित राजा रवि वर्मा